SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय वक्षस्कार - चक्रवर्ती सम्राट भरत ....... ११५ कुंदजाइजूहियवरचंपगणागपुप्फसारंगतुल्लगंधी छत्तीसाहियपसत्थपत्थिवगुणेहिं जुत्ते अव्वोच्छिण्णायवत्ते पागडउभयजोणी विसुद्धणियगकुलगयणपुण्णचंदे चंदे इव सोमयाए णयणमणणिव्वुइकरे अक्खोभे सागरो व थिमिए धणवइव्व भोगसमुदयसद्दव्वयाए समरे अपराइए परमविक्कमगुणे अमरवइसमाणसरिसरूवे मणुयवई भरहचक्कवट्टी भरहं भुंजइ पण्णट्ठसत्तू। __ शब्दार्थ - चाउरंतचक्कवट्टी - चातुरंत चक्रवर्ती - पूर्व-पश्चिम तथा दक्षिण, तीन ओर समुद्र तथा उत्तर में हिमवान तक-यों चारों ओर विस्तृत, विशाल राज्य का अधिपति, जसंसीयशस्वी, अभिजाए - अभिजात-श्रेष्ठ कुलोत्पन्न, तणुग - तीक्ष्ण, गारव - गौरव, अझुसिरछिद्ररहित, वीयणि - व्यंजन-पंखा, णंगल - हल, आइच्च - सूर्य, अमरवइ - इन्द्र। भावार्थ - वहाँ विनीता राजधानी में भरत नामक चातुरंत चक्रवर्ती सम्राट उत्पन्न हुआ। वह महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता एवं मलय तथा मंदर पर्वत के सदृश विशिष्टता लिए हुए था यावत् वह अपने राज्य का सम्यक् प्रशासन, परिपालन करता था। - भरत चक्रवर्ती के विषय में अन्य पाठ (गम) इस प्रकार है - वहाँ (विनीता राजधानी में) असंख्यात वर्ष पश्चात् भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह कीर्तिशाली, उत्तम, श्रेष्ठ, कुलीन, सत्त्व, वीर्य एवं पराक्रम आदि गुणों से विभूषित, प्रशस्त वर्ण, स्वर, सशक्त दैहिक संहनन, तीक्ष्ण बुद्धि, धारणा, प्रतिभा, संस्थान, शील, उत्तम प्रकृति तथा उत्कृष्ट गौरव, कांति एवं गति युक्त, अनेक प्रकार के वचन बोलने में निष्णात, तेज, आयुष्य, बल, वीर्य युक्त, छिद्ररहित, सघन, निश्चित, लोह शृंखला की तरह सबल, वज्रऋषभ नाराच संहनन युक्त था। उसके करतल एवं पादतल पर मत्स्य, युग, झारी, वर्द्धमानक, भद्रासन, शंख, छत्र, पंखा, पताका, चक्र, हल, मूसल, रथ, स्वस्तिक, अंकुस, चंद्र, सूर्य, अग्नि, यूप-यज्ञ स्तंभ, समुद्र, इन्द्रध्वज, पृथ्वी, कमल, हस्ती, सिंहासन, दंण्ड, कछुआ, श्रेष्ठ पर्वत, उत्तम अश्व, प्रशस्त मुकुट, कुंडल, नन्दावर्त, धनुष, भाला, स्त्री परिधान विशेष-घाघरा तथा भवन-विमानये शुभ, प्रशान्त चिह्न पृथक्-पृथक् थे। . उसके विशाल वक्षस्थल पर ऊर्ध्वमुखी, कोमल, मुलायम, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न, आकार अंकित था। देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका शरीर उत्तम गठनयुक्त एवं सुंदरता युक्त था। बाल सूर्य-उगते हुए सूर्य की किरणों से खिले हुए उत्तम कमल के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy