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द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का दुःषम-दुःषमा आरक
१०५ *4-12--28-12-24-44-28-08-**-*-14-08-08-28-34-28--4-12-2-44-12-12-28-08-19-04-04-28-04-28-08-28-1828-12-28-12-12-08नहीं होंगे। वे मनुष्य सूरज उगने के समय तथा छिपने के समय अपने बिलों से तेजी से दौड़कर बाहर निकलेंगे। मछलियों और कछुओं को जमीन पर लायेंगे। किनारे पर लाकर रात में शीत द्वारा तथा दिन में आतप द्वारा उनको रसरहित-शुष्क बनायेंगे, भोजन में उपयोग करेंगे। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त वे अपना निर्वाह करेंगे। ___ हे भगवन्! शील या आचार रहित, व्रतरहित, गुणरहित, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान, त्याग, पौषध एवं उपवास आदि से रहित प्रायः मांसभोजी, मत्स्यभोजी तथा अवशिष्ट क्षुद्र-तुच्छ धान्य आदि खाने वाले, वसा या चर्बी पदार्थों का आहार करने वाले, वे मनुष्य अपना आयुष्य पूर्ण कर कहाँ जायेंगे, कहाँ उत्पन्न होंगे?
हे गौतम! वे प्रायः नरकगति एवं तिर्यंचगति में उत्पन्न होंगे।
हे भगवन्! उस समय में विद्यमान शेर, बाघ, भेड़िये, चीते, रीछ, तरक्ष-बाघ की जाति का हिंसक प्राणी, गेंडे, शरभ (अष्टापद), गीदड़, बिलाव, कुत्ते, जंगली कुत्ते या सूअर, शशक, चीतल, चिल्ललग-जन्तु विशेष, जो प्रायः मांस, मछली, अवशिष्ट तुच्छ धान्य आदि तथा वसा, चर्बी आदि का आहार करते हैं, मरकर कहाँ जन्म लेंगे, कहाँ जायेंगे?
हे गौतम! वे प्रायः नरकगति एवं तिर्यंचगति में पैदा होंगे।
हे भगवन्! ढंक-विशेष प्रकार के कौवे, कंक-कठफोड़े, पीलक-जन्तु विशेष, मद्गुक-जल काक, शिखी-मोर, जो प्रायः मांसाहारी यावत् चर्बी आदि का आहार करते हैं, मर कर कहाँ जायेंगे?
हे गौतम! वे प्रायः नरकगति एवं तिर्यंचगति में जायेंगे, उत्पन्न होंगे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अवसर्पिणी काल के छठे आरे का वर्णन करते हुए भरत क्षेत्र का आकार-स्वरूप का कथन किया गया है। __शंका - यहाँ कुछ टीकाकारों ने शत्रुजय तथा कुछ ने शिखरजी, अष्टापद आदि पर्वतों को शाश्वत बता कर जैन धर्म में जड़ तीर्थों की सिद्धि करनी चाही है सो क्या सत्य है?
समाधान - उपरोक्त मूल पाठ में वैताढ्य गिरि आदि एवं गंगा सिंधु महानदी के अलावा सारे पर्वत, पठार, नदियों को नष्ट होना बताया है। अतः शत्रुजय, शिखर जी, अष्टापद आदि पर्वतों को शाश्वत कहना मिथ्या है। जैन इतिहास के प्रखर विद्वान् पन्यास श्री कल्याण विजय जी ने अपने पुस्तक 'निबंध निचय' में भी इसका प्रबल प्रमाणों से खंडन किया है।
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