________________
द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का दुःषम-दुःषमा आरक
६६
हे गौतम! उस समय भरत क्षेत्र का भूमिभाग अत्यंत समतल एवं रम्य होता है। वह ढोलक या मृदंग के चर्मनद्ध के उपरितन भाग के सदृश कोमल स्निग्ध यावत् नाना प्रकार की पंचवर्णी कत्रिम अकत्रिम मणियों द्वारा उपशोभित होता है।
हे भगवन्! उस काल के मनुष्यों का स्वरूप कैसा होता है? __ हे गौतम! उस समय भरत क्षेत्र के मनुष्य छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान युक्त होते हैं। उनकी ऊँचाई अनेक हाथ-सात हाथ होती है। वे कम से कम अन्तर्मुहूर्त तथा अधिकतम सौ वर्ष से कुछ अधिक आयुष्य का भोग करते हैं। इनमें से कतिपय नरकगति में यावत् कतिपय सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हुए समस्त दुःखों का अंत करते हैं। ___उस काल के आखिरी - तीसरे भाग में गण धर्म, पाखंड धर्म, राजधर्म, जाततेज-अग्नि तथा चरित्र धर्म विच्छिन्न हो जाते हैं। - विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त गणधर धर्म का अभिप्राय किसी समुदाय या जाति के वैवाहिक आदि स्व-स्व प्रवर्तित व्यवहार से है। अर्थात् - जातीय बंधन टूट जाते हैं। विभिन्न जातियों में वैवाहिक संबंध खुले रूप में प्रचलित हो जाते हैं।
__'पाखंड धर्म' विशेष रूप से विचारणीय है। भाषा शास्त्र के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर परिवर्तित स्थितियों में वह सर्वथा बदल जाता है। पाखंड या पाखंडी शब्द के अर्थ में प्राचीनकाल में प्रचलित अर्थ में सर्वथा भिन्नता है। भगवान् महावीर के समय में तथा आगे भी कई शताब्दियों तक पाखण्ड शब्द जैन धर्म से इतर मतों के लिए प्रयुक्त होता रहा है, उसके साथ कोई निंदात्मक भाव नहीं रहा। आज पाखण्ड या पाखण्डी शब्द छल एवं प्रवंचना युक्त, छद्मवेशी तथाकथित धर्मोपदेशकों या धार्मिकों के लिए प्रयुक्त होता है। उसमें निंदात्मक तथा घृणात्मक भाव जुड़ा है। अवसर्पिणी का दुःषम-दुःषमा आरक
(४६) तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं जाव परिहायमाणे २ एत्थ णं दूसमदूसमा णामं समाकाले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो!, तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए. आयारभावपडोयारे भविस्सइ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org