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द्वितीय वक्षस्कार - परिनिर्वाण पर देवकृत महोत्सव
चिताओं के ऊपर, भरत चक्रवर्ती के द्वारा मंदिर बनवाने का असत्य लेख लिखकर, मूर्ति-पूजा में धर्म बताने की असफल चेष्टा की है, जो चल नहीं सकी, क्योंकि जम्बूद्वीपपन्नती सूत्र के द्वितीय वक्षस्कार में ऋषभदेव का एवं तृतीय वक्षस्कार में भरत राजा के जीवन का विस्तार से वर्णन किया है। उसी के अंतर्गत इन्द्र के द्वारा स्तूप-निर्माण का वर्णन है, परन्तु यदि भरत ने मंदिर बनाये होते तो उसका उल्लेख शास्त्र में क्यों नहीं? अव्रती इन्द्र के द्वारा साधारण स्तूप निर्माण का उल्लेख तो शास्त्र में कर दिया, परन्तु भगवान् के ज्येष्ठ पुत्र द्वारा मंदिर-निर्माण की बात का कहीं शास्त्र में संकेत भी नहीं है। अतः भरत के द्वारा मंदिर बनाने का कथन सत्य से बहुत दूर है। सुज्ञ बंधु चिंतन करें। इन्द्र द्वारा निर्मित स्तूप केवल स्मृति रूप ही होने से उसका धर्म से कोई संबंध नहीं है और हमारा आत्म-कल्याण तो भगवान् की आज्ञा का पालने करने से होगा, मूर्ति, स्तूप और स्मृति मात्र से नहीं।
शंका - स्तूप (मूर्ति) को देख कर भगवान् की स्मृति होती है तो हमें मूर्ति पूजा क्यों नहीं
करना?
समाधान - पति का फोटो देखकर पति की स्मृति आ जाने मात्र से वह औरत सधवा नहीं हो सकती तथा पिता का फोटो देखकर स्मृति करने मात्र से वह सुपुत्र नहीं हो सकता। अगर कोई व्यक्ति, पिता का फोटो देखे बिना ही पिता के द्वारा दी गई शिक्षा एवं आज्ञा का पालन करे तो वह सुपुत्र कहला सकता है। इसी प्रकार हम भी भगवान् के द्वारा दी गई शिक्षा एवं आज्ञा का पालन करें, तो निश्चित ही हमारा कल्याण हो सकता है। मूर्ति को देखने मात्र से कल्याण नहीं हो सकता।
पिता की फोटो से पिता के जीवन-चरित्र और पिता की शिक्षाओं का ज्ञान नहीं होता। इसी तरह भगवान् की मूर्ति से भगवान् का जीवन चरित्र और भगवान् की वाणी का ज्ञान नहीं होता। फोटो और मूर्ति से स्मृति हो जाये तो भी स्मृति मोह का कारण है, मोह से ममत्व पैदा होता है और ममत्व से हमारा कल्याण नहीं हो सकता। अतः 'मोह रूप' स्मृति नहीं हो कर 'भक्ति रूप श्रद्धा' होनी चाहिए। अगर पिता पर भक्ति है तो पिता की आज्ञा का पालन होगा
और मोह रूप स्मृति है तो आसू बहायेगा, शोक करेगा। इसी प्रकार भगवान् पर शक्ति रूप श्रद्धा है तो भगवान् की आज्ञा का पालन होगा और मोह रूप स्मृति है तो भगवान् के वियोग में शोक करेगा। अतः भक्ति रूप श्रद्धा से आज्ञा का पालन करे तो उसी से हमारा कल्याण संभव है, मूर्ति को देखने एवं स्मृति मात्र से कल्याण नहीं।
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