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वर्ग ३ अध्ययन ८ - एक दिन की राज्यश्री और प्रव्रज्या
६७ 本小本本本本來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來牛柳林书本书本书本中中中中中中中中中中中中****中华率 अपनी गोदी में बिठा कर इस प्रकार बोले - “हे देवानुप्रिय! तुम मेरे सहोदर छोटे भाई हो। तुम अभी दीक्षा मत लो। मैं बड़े ठाट-बाट के साथ तुम्हारा राज्याभिषेक कर के तुम्हें इस द्वारिका का राजा बना दूंगा।" कृष्ण-वासुदेव के ये वचन सुन कर गजसुकुमाल कुमार मौन रहे।
... माता-पिता से दीक्षा हेतु आग्रह तए णं से गयसुकुमाले कुमारे कण्हं वासुदेवं अम्मापियरो य दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! माणुस्सया कामा असुई असासया वंतासवा जाव विप्पजहियव्वा भविस्संति। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए जाव पव्वइत्तए। - कठिन शब्दार्थ - दोच्चंपि तच्चंपि - दो तीन बार, माणुस्सया - मनुष्य संबंधी, कामा - काम, असुई - अशुचि, असासया - अशाश्वत, विप्पजहियव्वा - छोड़ने योग्य, पव्वइत्तए - प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं। ... भावार्थ - उसके बाद गजसुकुमाल कुमार ने कृष्ण वासुदेव और अपने माता-पिता से दोतीन बार इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रियो! काम-भोग का आधारभूत यह स्त्री-पुरुष सम्बन्धी शरीर मल, मूत्र, कफ, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित का भंडार है। यह शरीर अस्थिर है, . अनित्य है तथा सड़न-गलन और नष्ट होने रूप धर्म से युक्त होने के कारण आगे-पीछे कभी न कभी अवश्य नष्ट होने वाला है। यह अशुचि का स्थान है, वमन का स्थान है, पित्त, कफ, शुक्र एवं शोणित का भंडार है। यह शरीर दुर्गन्ध युक्त, मल, मूत्र और पीप आदि से परिपूर्ण है। इस शरीर को पहले या पीछे एक दिन अवश्य छोड़ना ही होगा। इसलिए हे माता-पिता! हे बन्धुवर! मैं आपकी आज्ञा ले कर भगवान् अरिष्टनेमि के समीप दीक्षा लेना चाहता हूँ।"
एक दिन की राज्यश्री और प्रव्रज्या
(३५)
तए णं तं गयसुकुमालं कुमारं कण्हे वासुदेवे अम्मापियरो यं जाहे णो संचाएइ बहुयाहिं अणुलोमाहिं जाव आघवित्तए, ताहे अकामाई चेव एवं वयासी - तं इच्छामो णं ते जाया! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए। णिक्खमणं जहा
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