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अन्तकृतदशा सूत्र ********************************************************************
समाधान - यद्यपि यह धार्मिक दृष्टि से पौषध नहीं होकर पौषध की क्रिया थी तथापि वे पौषध का बाह्य व्यवहार कायम रखने के लिए पौषध में सावध प्रयोजन विषयक वार्तालाप नहीं करते थे। क्योंकि दुनियाँ में व्यवहार पालन भी उत्तम पुरुषों को तो करना ही पड़ता है। .
तए णं से कण्हे वासुदेवे पोसहसालाओ पडिणिक्खमड़, पडिणिक्खमित्ता जेणेव देवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ, करित्ता एवं वयासी-होहिइ णं अम्मो! ममं सहोयरे कणीयसे भाउत्ति कट्ट' देवई देविं इट्टाहिं जाव आसासइ, आसासित्ता जामेव दिसंपाउन्भूए तामेव दिसंपडिगए।
भावार्थ - इसके बाद कृष्ण-वासुदेव पौषधशाला से निकल कर देवकी देवी के पास आये और चरण-वंदन किया तथा देवकी देवी से इस प्रकार कहा - "हे माता! मेरे एक सहोदर लघुभ्राता होगा। आप चिन्ता मत करो। आपके मनोरथ पूर्ण होंगे।" इस प्रकार इष्ट, मनोहर और मनानुकूल वचनों से माता को संतुष्ट कर के वे अपने स्थान चले गये। ___ विवेचन - शंका - देव ने कृष्ण महाराज से होने वाले लघुभ्राता के संयम लेने की सूचना भी दी थी, पर कृष्ण महाराज ने माताजी को अधूरी सूचना ही क्यों दी?
समाधान - माताजी को दीक्षित होने के समाचार साथ ही देने से खेद होने की संभावना थी। माताजी को बालक का बचपना देखना था तथा वह मनोरथ पूरा होने में कोई बाधा नहीं थी। उत्तम पुरुषों का वचन-विवेक बड़ा प्रशंसनीय होता है। वे कहने योग्य बात ही कहते हैं।
गर्भ पालन
(२६) तए णं सा देवई देवी अण्णया कयाइं तंसि तारिसगंसि जाव सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव हट्टतुट्ठहियया। गब्भं सुहं सुहेणं परिवहइ।
भावार्थ - कालान्तर में देवकी देवी सुख-शय्या पर सोई हुई थी, तब उसने सिंह का स्वप्न देखा। स्वप्न के बाद जागृत हो कर पति से स्वप्न का वृत्तान्त कहा। अपने मनोरथ की पूर्णता को निश्चित समझ कर देवकी का मन हृष्ट तुष्ट हो गया। वह सुखपूर्वक गर्भ का पालन करने लगी।
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