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सत्तमं अज्झयणं
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सप्तम अध्ययन
. जइ णं भंते! उक्खेवो सत्तमस्स । तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए जहा पढमे, वरं वसुदेवे राया, धारिणी देवी, सीहो सुमिणे, सारणे कुमारे, पण्णासओ दाओ, चोद्दस पुव्वाइं, वीसं वासाई परियाओ, सेसं जहा गोयमस्स जाव सेत्तुंजे सिद्धे । ।। सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥
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सारणकुमार (१५)
कठिन शब्दार्थ - उक्खेवो - उत्क्षेप, पण्णासओ - पचास पचास ।
भावार्थ 'उक्खेवो' - उत्क्षेप का अर्थ है - 'प्रारम्भिक वाक्य' । जिस प्रकार सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी के प्रश्नोत्तर के रूप से प्रथम अध्ययन प्रारम्भ हुआ है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। जम्बू स्वामी, सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि - "हे भगवन्! सिद्धिगति प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अंतगडदशा के तीसरे वर्ग के छठे अध्ययन का जो भाव कहा वह मैंने सुना। अब सातवें अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या भाव बताया सो कृपा कर के कहिए ।" श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि - हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सातवें अध्ययन में ये भाव कहे हैं।
हे जम्बू! उस काल उस समय में द्वारिका नाम की नगरी थी । 'वसुदेव' नाम के राजा रहते थे। उनकी रानी का नाम 'धारिणी' था। किसी एक रात्रि के समय उसने सिंह का स्वप्न देखा । गर्भकाल पूर्ण होने पर उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम 'सारणकुमार' रखा गया । सारणकुमार ने बहत्तर कलाओं का अध्ययन किया । यौवन अवस्था प्राप्त होने पर माता-पिता ने उसका विवाह किया। पचास करोड़ सोनैया आदि की दात (दहेज) मिली। भगवान् अरिष्टनेमि का उपदेश सुन कर सारणकुमार ने दीक्षा अंगीकार की । चौदह पूर्व का अध्ययन किया और बीस वर्ष दीक्षा-पर्याय पाली। अन्त में गौतम कुमार के समान शत्रुंजय पर्वत पर एक मास की संलेखना कर के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए।
॥ तीसरे वर्ग का सातवां अध्ययन समाप्त ॥
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