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________________ वर्ग १ अध्ययन १ - संथारा और निर्वाण १६ 來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來杯杯和东 स्थविरों के, सद्धिं - साथ में, सेत्तुंज - शत्रुञ्जय पर, दुरूहइ - चढ़ते हैं, मासियाए - मासिक, संलेहणाए - संलेखना, बारस - बारह, वरिसाई - वर्षों की, परियाए - पर्याय, सिद्धे - सिद्ध हुए। - भावार्थ - भगवान् की आज्ञा पा कर गौतम अनगार ने भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ में वर्णित स्कन्दक मुनि के समान बारह भिक्षु-प्रतिमा का सम्यक् आराधन किया और स्कन्दक मुनि के समान ही गुणरत्न-संवत्सर नामक तप का भी पूर्ण रूप से आराधन किया। जिस प्रकार स्कन्दक मुनि ने विचार कर के भगवान् से पूछा, उसी प्रकार गौतम अनगार ने भी विचार किया और भगवान् से पूछा। स्कन्दक मुनि विपुल पर्वत पर गये, उसी प्रकार गौतम मुनि भी स्थविरों के साथ शत्रुजय पर्वत पर गये और बारह वर्ष की दीक्षा पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना कर के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। - विवेचन - यहां गौतम अनगार द्वारा 'द्वादश भिक्षु प्रतिमाओं व 'गुणरत्न संवत्सर तप कर्म' का उल्लेख हुआ है। प्रासंगिक परिचय आवश्यक होने से यहाँ कुछ ऊहापोह किया जाता है - · प्रश्न - मासिकी भिक्षु प्रतिमा रूप पहली प्रतिमा में किन-किन नियमों का पालन किया जाता है?. उत्तर - शारीरिक संस्कार एवं देह ममत्व त्याग कर प्रतिमाधारी मुनि देव-मनुष्य-तिर्यंच के उपसर्गों को तितिक्षा पूर्वक सहता है। श्रमण, भिखारी, पशु, ब्राह्मण आदि को अंतराय नहीं देता है। अज्ञात कुल से गोचरी करता हुआ एक व्यक्ति के भोजन में से पहली पडिमाधारी साधु एक दत्ति आहार की व एक दत्ति पानी की ग्रहण करता है। साधु के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और पानी की जब तक धारा अखण्ड बनी रहे उसका नाम 'दत्ति' है। धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। गर्भवती, स्तनपायी आदि से भिक्षा नहीं लेता। जिस दाता का एक पैरं देहली के भीतर व एक बाहर हो, उसी से भिक्षा ग्रहण करता है। दिन के आदि, मध्य व अंत - तीन विभाग करके किसी एक भाग में ही गोचरी जाता है, चाहे मिले या नहीं। पेटा, अर्द्धपेटा, गौमूत्रिका, पतंगवीथिका, शंखावर्ता, गतप्रत्यागता, इन छह प्रकारों में से गोचरी करता है। जहाँ जान पहिचान हों-वहां एक रात्रि, अन्यत्र दो रात्रि से अधिक नहीं ठहर सकता। अधिक ठहरने की अवधि जितना ही छेद या तप का प्रायश्चित्त अधिक ठहरने पर आता है। आहारादि याचने के लिए, मार्ग पूछने के लिए, स्थान आदि की आज्ञा लेने के लिए, प्रश्नों का उत्तर देने के लिए क्रमशः याचनी, पृच्छनी, अनुज्ञापनी और पुट्ठवागरणी - ये चार प्रकार की भाषा बोलना उन्हें कल्पता है, अन्यथा प्रायः मौन ही रखता है। चारों ओर बाग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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