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________________ वर्ग १ अध्ययन १ - कृष्ण वासुदेव की ऋद्धि **************************************************************** वीरसेणपामोक्खाणं एगवीसाए वीरसाहस्सीणं उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसाहस्सीणं रुप्पिणीपामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं ईसर जाव सत्थवाहाणं बारवईए णयरीए अद्धभरहस्स य समत्तस्स आहेवच्चं जाव विहरइ। कठिन शब्दार्थ - समुद्दविजयपामोक्खाणं - समुद्रविजय प्रमुख, दसण्हं - दस, दसाराणं - दर्शाह - पूज्य पुरुष, बलदेवपामोक्खाणं - बलदेव प्रमुख, पंचण्हं - पांच, महावीराणं - महावीर, पज्जुण्णपामोक्खाणं - प्रद्युम्न प्रमुख, अछुट्टाणं - साढ़े तीन, कुमारकोडीणं - करोड़ कुमार, संबपामोक्खाणं - शाम्ब प्रमुख, सट्ठीए - साठ, दुईत -. दुर्दान्त, साहस्सीणं - हजार, महासेणपामोक्खाणं - महासेन प्रमुख, छप्पण्णाए - छप्पन, बलवग्ग - बल वर्ग, वीरसेणपामोक्खाणं - वीरसेन प्रमुख, रुप्पिणीपामोक्खाणं - रुक्मिणी प्रमुख, सोलसण्हं देवी साहस्सीणं - सोलह हजार रानियाँ, अणंगसेणापामोक्खाणं - अनंगसेना प्रमुख, अणेगाणं गणियासाहस्सीणं - अनेक गणिकाएं, बहूणं - बहुत, ईसर - ईश्वरऐश्वर्यशाली, सत्थवाहाणं - सार्थवाह (व्यापारी पथिकों के समूह के नायक को ‘सार्थवाह' कहते हैं), अद्धभरहस्स - अर्द्ध भरत के, आहेवच्चं - आधिपत्य-राज। भावार्थ - द्वारिका नगरी में समुद्रविजय आदि दस दशाह और बलदेव आदि पांच महावीर थे। प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमार थे। शत्रुओं से कभी पराजित न हो सकने वाले शाम्ब आदि. साठ हजार शूरवीर थे। महासेन आदि सेनापतियों की अधीनता में रहने वाला छप्पन हजार बलवर्ग (सैनिक दल) था। वीरसेन आदि इक्कीस हजार कार्यकुशल वीर थे। उग्रसेन आदि सोलह हजार राजा थे। रुक्मिणी आदि सोलह हजार रानियाँ थी। चौसठ कलाओं में निपुण ऐसी अनंगसेना आदि अनेक गणिकाएं थी और भी बहुत से ऐश्वर्यशाली नागरिक, नगर-रक्षक, सीमान्त-राजा सेठ, सेनापति और सार्थवाह आदि थे। . ऐसे परम प्रतापी कृष्ण-वासुदेव द्वारिका से ले कर क्षेत्र की मर्यादा करने वाले वैताढ्य पर्वत पर्यन्त अर्द्ध भरत (भरत क्षेत्र के तीन खण्ड) का एक छत्र राज करते थे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण वासुदेव के राज्य वैभव का वर्णन किया गया है। - १. जिनकी संख्या दस हों और जो पूज्य हों, उन्हें दशाह कहते हैं। वे दस इस प्रकार हैं१. समुद्रविजय २. अक्षोभ ३. स्तिमित ४. सागर ५. हिमवान् ६. अचल ७. धरण ८. पूरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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