SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ अन्तकृतदशा सूत्र : ***************** ४. समवायाङ्ग ५. विवाहपण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति - भगवती) ६. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ७. उपासकदशाङ्ग ८. अंतगडदशाङ्ग ६. अनुत्तरोपपातिक १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र और १२. दृष्टिवाद | M जिस प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, ये पांच अस्तिकाय कभी नहीं थे, कभी नहीं हैं और कभी नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं, किंतु ये पांच अस्तिकाय भूतकाल में थे, वर्तमान में हैं और भविष्यत् काल में भी रहेंगे। इसी प्रकार यह द्वादशांग वाणी कभी नहीं थी, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगी, ऐसी बात नहीं, किन्तु भूतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्यत् काल में रहेगी। अतएव ये मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरंतर वाचना आदि देते रहने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण वह अक्षय है। गंगा, सिन्धू नदियों के प्रवाह अव्यय है। जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है। यह द्वादशांग वाणी गणि-पिटक के समान हैं अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गण को धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ है पेटी या पिटारी अथवा मंजूषा । आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुत रत्नों की पेटी (मंजूषा ) को 'गणि-पिटक' कहते हैं। समान - जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं । यथा दो पैर, दो जंघा, दो उरू (साल), दो पसवाडे, दो हाथ, एक गर्दन, एक मस्तक । इसी प्रकार श्रुत रूपी परम पुरुष के भी आचाराङ्ग आदि बारह अङ्ग होते हैं। ******************************************** Jain Education International - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर हुए थे। उनकी नौ वाचनाएं हुईं। अभी वर्तमान में उपलब्ध आगम पांचवें गणधर श्री सुधर्मास्वामी की वाचना के हैं। सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है। इसलिये दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। ग्यारह अंग ही उपलब्ध हैं। उसमें अंतगडदशाङ्ग सूत्र आठवां अंग सूत्र है । . आठ कर्मों का नाश कर संसार रूपी समुद्र से पार उतरने वाले 'अन्तकृत' कहलाते हैं अथवा जीवन के अंतिम समय में केवलज्ञान और केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष जाने वाले जीव ‘अन्तकृत' कहलाते हैं। ऐसे जीवों का वर्णन जिस सूत्र में है वह सूत्र 'अन्तकृतदशा ( अन्तगडदसा ) ' कहलाता है। अंतगडदशा में एक ही श्रुतस्कंध है । आठ वर्ग हैं । ६० अध्ययन हैं। प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का वर्णन इस प्रकार है - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy