________________
* णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स
अन्तकृतदशा सूत्र
(मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित )
प्रस्तावना
यह संसार अनादिकाल से है और अनन्त है अर्थात् यह संसार कब से प्रारंभ हुआ, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार इसका अन्त कब हो जायेगा, यही नहीं कहा जा सकता । 1. इसीलिये संसार अनादि अनन्त कहा जाता है। इसी प्रकार जैन धर्म के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। जैन धर्म भी अनादि अनन्त है। अतएव इसे सनातन (सदातन - सदा रहने वाला) धर्म भी कहते हैं। भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में काल का परिवर्तन होता रहता है। एक उत्सर्पिणी काल और एक अवसर्पिणी काल को मिला कर एक कालचक्र कहलाता है। यह बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम परिमाण वाले उत्सर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर भगवान् होते हैं। इसी प्रकार दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम परिमाण वाले अवसर्पिणी काल में भी चौबीस तीर्थंकर होते हैं। गृहस्थावस्था का त्याग कर संयम अंगीकार करने के बाद जब केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हो जाता है, तत्पश्चात् वे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते हैं। उस समय उनके जिन ( तीर्थंकर) नाम कर्म का उदय होता है। तब ही वे भाव तीर्थंकर होते हैं। उनकी उस प्रथम देशना में ही जितने गणधर होने होते हैं उतने दीक्षित हो जाते हैं। उसी समय तीर्थंकर भगवान् अर्थ रूप से द्वादशांग वाणी का कथन करते हैं और गणधर देव उसे सूत्र रूप से गूंथित करते हैं । इसीलिये वे अपने शासन की अपेक्षा धर्म की आदि करने वाले कहलाते हैं।
बारह अंग सूत्रों के नाम इस प्रकार हैं
Jain Education International
-
१. आचाराङ्ग २. सूयंगडाङ्ग ३. ठाणाङ्ग
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org