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________________ १५० अन्तकृतदशा सूत्र अणगारे तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्ण-परियागं पाउणइ, अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाएणं झूसेड़, तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ जाव सिद्धे। कठिन शब्दार्थ - ओरालेणं - उदार, विउलेणं - विपुल, प्रचुर मात्रा में, पयत्तेणं - प्रदत्त - गुरु द्वारा अनुज्ञा प्राप्त, दिया हुआ, प्रयत्न पूर्वक पालन किया जाता हुआ, पग्गहिएणंप्रगृहीत. - अच्छी तरह ग्रहण किया हुआ, छुड़ाए छूटे नहीं, महाणुभागेणं - महान् अनुभाग यानी महान् फल वाले, बहुपडिपुण्णे - बहुप्रतिपूर्ण, सामण्ण-परियागं - श्रामण्य पर्याय का, अद्धमासियाए संलेहणाए - अर्द्धमास की संलेखना कर, जस्सट्ठाए - जिस अर्थ के लिएजिस परम पद मुक्ति के लिए, कीरइ - कठोर समाचारी को स्वीकार किया। ___ भावार्थ - किसी समय श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशीलक उद्यान से निकल कर बाहर जनपद में विचरने लगे। ___ उन महाभाग अर्जुन अनगार ने भगवान् के दिये हुए तथा स्वयं की उत्कृष्ट भावना से स्वीकार किए हुए, अत्यन्त प्रभावशाली उदार, विपुल एवं प्रधान तपःकर्म से आत्मा को भावित करते हुए छह महीने तक चारित्र पर्याय का पालन किया। अर्द्ध मास की संलेखना कर, तीस भक्त अनशन छेदित कर, जिस कार्य के लिए संयम अंगीकार किया था, उसे सिद्ध कर लिया अर्थात् अव्याबाध सुख-सम्पन्न मोक्ष प्राप्त कर लिया। विवेचन - अर्जुन अनगार ने जो तप आराधन किया, उस तप की महत्ता को बताने के लिए सूत्रकार ने 'तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तबोकम्मेणं' विशेषण दिये हैं। उनकी टीका और विशेष अर्थ इस प्रकार है - __ "तेन पूर्वभणितेन उदारेण-प्रधानेन, विपुलेन-विशालेन, भगवता दत्तेन, प्रगृहीतेन, उत्कृष्टभावतः स्वीकृतेन, महानुभागेन-महान् अनुभागः प्रभावो यस्य, तेन तपःकर्मणा।" यहाँ पर अर्जुन मुनि ने जो तप आराधन किया है उस तप की महत्ता को अभिव्यक्त किया गया है। प्रस्तुत पाठ में तप-कर्म विशेष्य है और उदार आदि उसके विशेषण हैं। इनकी अर्थविचारणा इस प्रकार है - तेणं - यह शब्द पूर्व प्रतिपादित तप की ओर संकेत करता है। अर्जुन मुनि के साधना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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