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________________ वर्ग ६ अध्ययन ३ - सुदर्शन और माता-पिता का संवाद ****************** **** ***keekaareerekakkak k **************** भावार्थ - सुदर्शन सेठ के निवेदन पर माता-पिता ने कहा - 'हे पुत्र! अर्जुन माली राजगृह नगर के बाहर मनुष्यों को मारता हुआ घूम रहा है। इसलिए हे पुत्र! तुम भगवान् को वन्दना करने के लिए नगर से बाहर मत जाओ। वहाँ जाने से न-जाने तुम्हारे शरीर पर कोई विपत्ति आ जाय। इसलिए तुम यहीं से भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर लो।' तए णं से सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं वयासी - “किण्णं अहं अम्मयाओ! समणं भगवं महावीरं इहमागयं इह-पत्तं इह-समोसढं इह-गए चेव वंदिस्सामि णमंसिस्सामि? तं गच्छामि णं अहं अम्मयाओ! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जुवासामि।" .. कठिन शब्दार्थ - इहं - यहा, आगयं - पधारे हैं, पत्तं - प्राप्त - उपलब्ध, समोसढंसमवसृत, तुन्भेहिं - आप की, अन्भणुण्णाए - आज्ञा मिलने पर। ___भावार्थ - माता-पिता के वचन सुन कर सुदर्शन सेठ इस प्रकार बोले - 'हे माता-पिता! जब श्रमण-भगवान् यहां पधारे हैं, विराजित हैं और यहाँ समवसृत हैं, तो भी मैं उनको यहीं से वंदन-नमस्कार करूँ और उनकी सेवा में उपस्थित न होऊँ, यह कैसे हो सकता है? मैं भगवान् के दर्शन करने के लिए जाना चाहता. हूँ। इसलिए आप मुझे आज्ञा दीजिये जिससे मैं वहाँ जा कर भगवान् को वन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करूँ।' विवेचन - जब सुदर्शन श्रमणोपासक ने अपने माता पिता से गुणशील उद्यान में जाकर भगवान् की पर्युपासना करने हेतु आज्ञा चाही तो माता पिता ने कहा - 'हे पुत्र! तुम जानते ही हो कि मार्ग में मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट अर्जुनमाली रोज छह पुरुष और एक स्त्री - इस प्रकार सात जीवों की घात करता हुआ रह रहा है। अतः तुम भगवान् महावीर स्वामी की चरण वंदना करने के लिये मत जाओ। इसमें जीवन की जोखिम है, नहीं जाने से शरीर को विपत्ति का सामना नहीं करना पड़ेगा। प्रभुजी तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं वे यहीं से तुम्हारा प्रणिपात स्वीकार कर लेंगे। अतः तुम यहीं से वंदना-नमस्कार कर लो।' माता पिता की बात सुनकर सुदर्शन सेठ ने कहा - 'भगवान् यहां पधारे हैं और मैं कायर बन कर यहीं से वंदना-नमस्कार कर लूं, यह नहीं हो सकता? मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि भगवान् केवली हैं वे सब कुछ जानते देखते हैं अतः मेरा वंदन वे स्वीकार करेंगे परन्तु मैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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