SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० अन्तकृतदशा सूत्र ********ckektakeatekakkakealtketaketakettrekkekestreke ka k tikakakakakakakakakakakakakaka k ** सुदर्शन श्रमणोपासक . . . (६८) तत्थ णं रायगिहे णयरे सुदंसणे णामं सेट्ठी परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए। तएणं से सुदंसणे समणोवासए यावि होत्था। अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ। कठिन शब्दार्थ - अभिगयजीवाजीवे - जीवादि तत्त्वों का ज्ञाता। · भावार्थ - उस राजगृह नगर में सुदर्शन नाम के एक सेठ रहते थे। वे ऋद्धि सम्पन्न और अपराभूत थे। वे श्रमणोपासक थे तथा जीवाजीवादि नव तत्त्वों के ज्ञाता थे। विवेचन - 'अभिगय जीवाजीवे जाव विहरह' में संकुचित पूरा पाठ श्री भगवती सूत्र श० २ उ० ५ में इस प्रकार है - उवलद्धपुण्णपावा - पुण्य किसमें होता है और पाप किसमें होता है, इसका उन्हें ज्ञान था। आसव-संवर-णिज्जर-किरियाहिकरण-बंधमोक्ख-कुसला - आस्रव - कर्मों के आने के कारण, संवर - आस्रवों का निरोध, निर्जरा - कर्म का देशतः क्षय, क्रिया - कार्य करने की पद्धति, अधिकरण - अशुभ मन, वचन, काया आदि बंध - आत्मा के साथ कर्म संबंध होना, मोक्ष - कर्मों का सम्पूर्ण क्षय आदि विविध तत्त्वों के ज्ञाता थे। __ असहेज्जदेवासुर-णाग-सुवण्ण-जक्ख-रखखस-किन्नर-किंपुरिस-गरूलगंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जा - देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरूड़, गंधर्व, महोरग आदि विविध देवों से वे सहायता नहीं चाहते थे अथवा ये सभी देव गण उन्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे। णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कंखिया णिवितिगिच्छा लद्धहां गहियहा पुच्छियहा अभिगयहा विणिच्छियहा अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ता - निर्ग्रन्थ-प्रवचन में उन्हें किंचित् मात्र भी कोई शंका नहीं थी, प्रतिपूर्ण - अनुत्तर धर्म पा कर अब वे किसी अन्य धर्म की आकांक्षा वाले नहीं थे। करणी के फल में लेश मात्र भी संदेह नहीं था, धर्म को उन्होंने उपलब्ध कर अर्थ जाना था, धर्मतत्त्व का ग्रहण किया था, पृच्छा करके, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy