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६-१0 अज्झयणाणि
मूलश्नी और मूलदत्ता
__ (६०) उक्खेवओ य णवमस्स। तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवईए णयरीए, रेवयए पव्वए, णंदणवणे उजाणे, कण्हे राया। तत्थ णं बारवईए णयरीए कण्हस्स वासुदेवस्स पुत्तए जंबवईए देवीए अत्तए संबे णामं कुमारे होत्था अहीण। ।
भावार्थ - श्री जम्बू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा - 'हे भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आठवें अध्ययन के जो भाव कहे, वे मैंने आपके मुखारविन्द से सुने। इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने नौवें अध्ययन के क्या भाव कहे हैं, सो कृपा कर के कहिये।' श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा - 'हे जम्बू! उस काल उस समय में द्वारिका नाम की नगरी थी, उस नगरी के समीप रैवतक पर्वत था। वहाँ पर नंदन वन उद्यान था। उस नगरी में कृष्णवासुदेव राज करते थे। कृष्ण-वासुदेव के पुत्र एवं जाम्बवती देवी के आत्मज 'शाम्ब' नामक पुत्र थे। जो सर्वांग सुन्दर थे। शाम्बकुमार की रानी का नाम 'मूलश्री' था, जो अत्यन्त सुन्दरी एवं कोमलांगी थी।
तस्स णं संबस्स कुमारस्स मूलसिरि णामं भारिया होत्था, वण्णओ। अरहा अरिट्ठणेमी समोसढे। कण्हे णिग्गए। मूलसिरि वि णिग्गया, जहा पउमावई। णवरं देवाणुप्पिया! कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि जाव सिद्धा। एवं मूलदत्ता वि।
॥पंचमो वग्गो समत्तो॥ भावार्थ - एक समय भगवान् अरिष्टनेमि वहाँ पधारे। कृष्ण-वासुदेव उनके दर्शन करने गये। मूलश्री पद्मावती के समान दर्शन करने गई। भगवान् ने धर्म-कथा कही। धर्म-कथा सुन कर परिषद् अपने-अपने घर लौट गई। कृष्ण-वासुदेव भी भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर लौट
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