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वर्ग ३ अध्ययन ८ - सोमिल द्वारा मोक्ष प्राप्ति में सहायता ************************************************************* ___ भावार्थ - यह सुनकर कृष्ण-वासुदेव ने आश्चर्ययुक्त हो कर पूछा - "हे भगवन्! गजसुकुमाल अनगार ने किस प्रकार अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया?"
तए णं अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - “एवं खलु कण्हा! गयसुकुमाले णं अणगारेणं मम कल्लं पुव्वावरण्ह-कालसमयंसि वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तए णं तं गयसुकुमालं अणगारं एगे पुरिसे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते जाव सिद्धे। तं एवं खलु कण्हा! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणो अटे।"
भावार्थ - कृष्ण-वासुदेव के इस प्रकार पूछने पर भगवान् ने कहा - "हे कृष्ण! कल दीक्षा लेने के बाद, चौथे प्रहर में गजसुकुमाल अनगार ने वन्दन-नमस्कार कर के मेरे सामने इस प्रकार इच्छा प्रकट की - 'हे भगवन्! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर महाकाल श्मशान में एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा की आराधना करना चाहता हूँ।' हे कृष्ण! मैंने कहा - "जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।' इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर गजसुकुमाल अनगार महाकाल श्मशान में गये और वहाँ ध्यान धर कर खड़े रहे।" - "हे कृष्ण! उस समय वहाँ एक पुरुष आया और उसने गजसुकुमाल अनगार को ध्यानस्थ खड़ा देखा। देखते ही उसे वैर-भाव जाग्रत हुआ और वह क्रोध से आतुर हो कर तालाब से गीली मिट्टी लाया और गजसुकुमाल अनगार के सिर पर चारों ओर उस मिट्टी की पाल बांधी। फिर चिता में जलते हुए खेर के अत्यन्त लाल अंगारों को एक फूटे हुए मिट्टी के बरतन में ले कर गजसुकुमाल अनगार के | सिर पर डाल दिये, जिससे गजसुकुमाल अनगार को असह्य वेदना हुई, परन्तु फिर भी उनके हृदय में उस घातक पुरुष के प्रति थोड़ा भी द्वेष-भाव नहीं आया। वे समभाव पूर्वक उस भयंकर वेदना को सहन करते रहे और शुभ परिणाम एवं शुभ अध्यवसाय से केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गए। इसलिए हे कृष्ण! गजसुकुमाल अनगार ने अपना कार्य सिद्ध कर लिया।"
विवेचन - जैन दर्शन वस्तुतः विचित्र धर्म दर्शन है। यहाँ हर उल्टी बात को सुलटा लिया जाता है, उलझी हुई गुत्थियों को सुगमता से सुलझा लिया जाता है। वीरवर सेनानी गजसुकुमाल जहाँ मन से भी द्वेष नहीं करते, वहीं सेनापति भगवान् अरिष्टनेमि नृशंस क्रूर हत्यारे को ‘सहायता दाता' निरूपित करते हैं, वह भी तत्काल घटित का उद्धरण देकर।
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