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________________ ८० अन्तकृतदशा सूत्र 來來來來來來來來來***** ****************************************** घर में रख दी। कृष्ण-वासुदेव के द्वारा एक ईंट उठाये जाने पर, अन्य सभी लोगों ने ईंटें उठा कर सारा ढेर उसके घर में पहुंचा दिया। इस प्रकार श्री कृष्ण के एक ईंट उठाने मात्र से उस वृद्ध पुरुष का बार-बार चक्कर काटने का कष्ट दूर हो गया। विवेचन - बड़े आदमी जो करवाना चाहते हैं वह कई बार वाणी की अपेक्षा वर्तन द्वारा करवा लेते हैं - यह इस बात का सुंदर उदाहरण है। इसीलिए विनीत के लक्षणों में इंगित और आकार की संपन्नता बताई गई है। यह संपन्नता श्रीकृष्ण के साथ चलने वाले पुरुषों में थी। गजसुकुमाल अनगार के बारे में पृच्छा तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए णयरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अरहा अरि?णेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता गयसुकुमालं अणगारं अपासमाणे अरहं अरिट्ठणेमिं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - कहि णं भंते! से मम सहोयरे भाया गयसुकुमाले अणगारे? जण्णं अहं वंदामि णमंसामि। तए णं अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - “साहिए णं कण्हा! गयसुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणो अढे।" ___कठिन शब्दार्थ - अपासमाणे - नहीं दिखाई देने पर, साहिए - साध लिया है, अप्पणो - अपना, अट्टे - अर्थ - प्रयोजन। भावार्थ - इसके बाद कृष्ण-वासुदेव द्वारिका नगरी के मध्य चलते हुए जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजते थे, वहाँ पहुँचे और भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। तत्पश्चात् अपने सहोदर लघुभ्राता नवदीक्षित गजसुकुमाल अनगार को वंदन नमस्कार करने के लिए इधर-उधर देखने लगे। जब उन्होंने गजसुकुमाल अनगार को नहीं देखा, तब भगवान् से पूछा - "हे भगवन्! मेरा सहोदर लघुभ्राता नवदीक्षित गजसुकुमाल अनगार कहां हैं? मैं उनको वंदन-नमस्कार करना चाहता हूँ।" भगवान् ने फरमाया - “हे कृष्ण! गजसुकुमाल अनगार ने जिस आत्म-अर्थ के लिए संयम स्वीकार किया था, उससे वह आत्मार्थ सिद्ध कर लिया है।" सोमिल द्वारा मोक्ष प्राप्ति में सहायता तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्ठणेमि एवं वयासी - कहण्णं भंते! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिए अप्पणो अट्टे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004178
Book TitleAntkruddasha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages254
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_antkrutdasha
File Size48 MB
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