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________________ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - षष्ठ दशा kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk kkkkkkkkkkkkk परिणामस्वरूप यावत् उत्तरवर्ती नरकावास में शुक्लपाक्षिक होता है - देश कम अर्द्धपुद्गलपरावर्त परिमित काल में मुक्ति प्राप्त करता है और भविष्य - जन्मान्तर में सुलभबोधि होता है। यह क्रियावादी का स्वरूप है। विवेचन - सत् में प्रवृत्त होने से पूर्व असत् को जानना आवश्यक होता है। जिस प्रकार स्वास्थ्यलाभ के लिए पूर्व संचित विकारों का विरेचन कर उपयुक्त पौष्टिक औषधि ली जाती है और वह कार्यकर होती है, वही बात यहाँ ज्ञातव्य है। अत एव उपासक प्रतिमाओं का वर्णन करने से पूर्व सूत्रकार ने आस्तिकवादी और नास्तिकवादी पक्षों का वर्णन किया है। अल्पज्ञ, अयथार्थज्ञ व्यक्ति केवल वर्तमान को देखता है। वर्तमान में प्राप्त सुख, अनुकूलता, संपन्नता, विलास - यही सब उसके लक्ष्य होते हैं। परोक्ष में, जिसके अन्तर्गत परलोक, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि का विधान है उसका विश्वास नहीं होता। ऐसे व्यक्ति के जीवन में अहिंसा, सत्य, शील, संतोष, अपरिग्रह आदि का जरा भी महत्त्व नहीं होता। वह उन्हें वाग्विडंबना के अतिरिक्त कुछ नहीं मानता। सत्क्रियाओं में, पुण्य कर्मों में उसका विश्वास नहीं होता। न पाप-पुण्य के फल में ही उसकी आस्था होती है। सूत्रकार ने उसे अक्रियावादी और नास्तिकवादी के रूप में अभिहित किया है। अक्रियाकदी का यहाँ तात्पर्य सत् या उत्तम फलात्मक क्रियाओं को तद्प फलदायक न मानने से है। क्योंकि उसमें भी क्रियाशीलता तो होती है, पर वह अशुभ, सावध या पापपंकिल होती है। . अक्रियावादिता के संदर्भ में हिंसकता, निर्दयता, कठोरता, कठोरतम परिक्लेशकारिता, संतापबहुलता इत्यादि का बड़ा ही सूक्ष्म और मार्मिक विवेचन हुआ है। यह इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि कभी तथाकथित राज्य, वैभव, सत्तादि सम्पन्न बड़े लोग मात्र अपनी एषणापूर्ति और महिमातिशय तथा अधिकार और प्रभावशीलता का प्रदर्शन करने हेतु ऐसे कार्य करते रहे हों। उत्पीड़ित करने के जो अत्यधिक क्रूरता और नृशंसतापूर्ण कुत्सित उपक्रम यहाँ उल्लिखित हुए हैं, वे इस तथ्य का साक्ष्य लिए हुए हैं। उपासक प्रतिमा से अपने आपको जोड़ने वाले साधक को जागरूक करने की दृष्टि से यह सब पूर्वभूमिका के रूप में बतलाया गया है ताकि इस कोटि के कुत्सित कार्य उसकी रोमावली तक भी न पहुँच पाएँ। उसकी जघन्यता, निन्दनीयता और हेयता सदैव उसके चित्त में व्याप्त रहे, जिसके कारण वह इनसे सर्वथा बचा रह सके। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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