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किताब के सदृश्य हो, तब ही उसकी साधना सफल हो सकती है। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन में इस बात को निम्न गाथा के द्वारा इस प्रकार निरूपित किया गया है -
सोही उज्जय-भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ |
णिव्वाणं परमंजाइ, घयसित्तिव्व पावए ॥१२॥
भावार्थ - मनुष्य- जन्म, धर्मश्रवण, धर्मश्रद्धा और संयम में परक्रम यह चार अंग पाकर मुक्ति की ओर प्रवृत्त हुए सरल भाव वाले साधक की शुद्धि होती है और शुद्धि प्राप्त आत्मा में धर्म ठहर सकता है। घी से सींची हुई अग्नि के समान तप तेज से देदीप्यमान होता हुआ वह आत्मा परम निर्वाण - मोक्ष को प्राप्त करता है ।
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हाँ तो संयमी साधक को पूर्ण सर्तकता एवं सावधानी रखते हुए भी छद्यस्थता अनिच्छा, प्रमाद वश कभी दोष का सेवन हो जाय तो उसे अपने दोष को सहज भाव से स्वीकार कर आलोचना प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर लेना चाहिए । तब ही उसकी आलोचना फलदायक हो सकती है। उसके विपरीत जो साधक अपनी साधना में लगे दोषों को अपनी वक्र और जड़ बुद्धि से उनकी आलोचना सहज भाव से नहीं करता तो उसकी शुद्धि कभी नहीं हो सकती है। कहने का तात्पर्य दोष सेवन करने वाले साधक की मनोभूमिका ऋजु, छल-कपट. से रहित होनी चाहिए। उसके अन्तर हृदय में पश्चात्ताप की भावना हो, तभी उसके दोषों का परिमार्जन संभव है।
इसी प्रकार सुनने वाले आचार्यादि भी धीर, वीर, गंभीर हो, जो आगम के गहन ज्ञाता हों, प्रायश्चित्त के विधिविधानों के ज्ञाता (मर्मज्ञ) बहुश्रुत हों, तटस्थ हों, परिस्थिति का परिज्ञान करने में सक्षम हों, आलोचक के द्वार कहे गये दोषों को गुप्त रखने वाले हों। स्वयं निर्दोष हों, पक्षपात रहित हों, आदेय वचन वाले हों, ऐसे सुयोग्य साधक ही दोषी साधक को उचित प्रायश्चित्त देकर उसे निर्दोष एवं संयम में स्थित बना सकते हैं।
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• छेद सूत्र के दो प्रमुख कार्य हैं- दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हुए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के विधि विधान का निरूपण । प्रस्तुत छेद सूत्र - दशाश्रुत स्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार तीनों आगम चौदहपूर्वी भद्रबाहु स्वामी द्वारा प्रत्याख्यान पूर्व का निर्यूहण माना गया है । दशाश्रुत स्कन्ध की दस अध्ययन (दशा), बृहत्कल्प के छह उद्देशक और व्यवहार के दस उद्देशक हैं, जिनकी संक्षिप्त विषय सामग्री इस प्रकार है ।
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