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________________ लता ३५ आचार्य और गण के प्रति शिष्य की कर्त्तव्यशीलता kirtadaktrikakakakakakakakakkaamaAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAX आचार्य के कर्त्तव्य के रूप में चार प्रकार की विनय प्रतिपत्तियों का उल्लेख हुआ है। यहाँ 'विनय' शब्द नम्रताद्योतक नहीं है। नीयतेऽनेनेति नयः'-जिसके द्वारा किसी विशेष दिशा में ले जाया जाए, मार्गदर्शन दिया जाए, उसे नय कहा जाता है। तर्कशास्त्र में जो नय शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ ऐसा ही भाव है। नय तर्कपुरस्सर, युक्तिपूर्वक सत् तत्त्व की दिशा में अध्येता को ले जाता है। 'नय' के पूर्व 'वि' उपसर्ग लगने से विनय शब्द निष्पन्न होता है। 'विशेषेण नयः विनयः'-विशेष रूप से संलग्नता निष्पन्न करना विनय है। - आचार्य अपने शिष्य को आचार एवं श्रुत में संलग्न करता है। साधनापथ से च्युत होते देख, पतनोन्मुखता से हटाकर संयम में स्थिर करता है। इसके लिए विक्षेपणा शब्द का प्रयोग हुआ है। 'क्षेपण' का अर्थ फेंकना है। 'विक्षेपण' का अर्थ विशेष रूप से फेंकना या निवारण करना है। निरर्थक और निष्प्रयोज्य वस्तु को व्यक्ति झटपट फेंक देता है, उसी तरह मिथ्यात्व, असंयत प्रवृत्ति इत्यादि का आचार्य निवारण करता है और उसका संयम में उत्क्षेपण करता है, उसे उन्नत बनाता है। दैनंदिन व्यवहार में दोष न व्यापे, एतदर्थ आचार्य अकस्मात् शिष्य को कोपावेश आदि में देखता है तो स्वयं स्थिर रहते हुए, उसे दूर करता है, जिससे उद्भूयमान दोष का निर्घातनविनाश हो जाता है। यहाँ प्रयुक्त निर्घातन शब्द दोषों के मूलच्छेद का द्योतक है। "निःशेषेण घातन निर्घातनम्" - नि:शेष का अर्थ समग्र तथा घातन का अर्थ घात करना या नाश . करना है। .. आचार्य और गण के प्रति शिष्य की कर्तव्यशीलता तस्सेवं गुणजाइयस्स अंतेवासिस्स इमा चउव्विहा विणयपडिवत्ती भवइ। तंजहाउवगरणउप्पायणया, साहिल्लणया, वण्णसंजलणया, भारपच्चोरुहणया॥१४॥ से किं तं उवगरणउप्पायणया? उवगरण-उप्पायणया चउव्यिहा पण्णत्ता। तंजहाअणुप्पण्णाणं उवगरणाणं उप्पाइत्ता भवइ, पोराणाणं उवगरणाणं सारक्खित्ता संगोवित्ता भवइ, परित्तं जाणित्ता पच्वुद्धरित्ता भवइ; अहाविहि संविभइत्ता भवइ। से तं उवगरणउप्पायणया॥१५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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