________________
अष्टविध गणिसंपदा
३१
attakkkkkkkkkkkkk★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
सभी सिद्धान्तों का विवेचन है, जो साधु जीवन के विशुद्ध परिपालन के लिए अपेक्षित हैं, जिन्हें प्रत्येक साधु को भलीभाँति आत्मसात करना होता है। आचार्य साधुओं की आगम अध्ययन विषयक व्यवस्था का सम्यक् संचालन करते हैं। साधुओं की क्षमता, धारणाशक्ति, अधीत पाठ की सम्यक् उपस्थिति आदि को देखकर वाचना, अध्ययन आदि का निर्धारण करते हैं, ताकि श्रमणवृन्द में श्रुताध्ययन सम्यक् रूप में चले, चिरकाल तक स्मृति में रह सके।
पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान पहला है। बौद्धिक चिन्तन, प्रज्ञाप्रकर्ष, नवाभिनव विचारोद्भव इत्यादि मतिज्ञान पर आश्रित हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञान के उत्तरोत्तर विकास के हेतु हैं। मति ज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुरूप इनकी प्राप्ति में बहुविध तरतमता बनी रहती है। आचार्य में मतिज्ञान के इन सभी पूरक अंगों का विलक्षण वैशिष्ट्य होता है। उन द्वारा विषय का अवग्रह, उसमें विशेष गवेषणात्मक औत्सुक्य, तदनुरूप निश्चिति (निश्चयात्मक अवधारणा) तथा स्मृति में उसका चिरन्तन स्थायित्व उत्कर्ष रूप में विद्यमान हो, यह अपेक्षित है। ऐसा होने से प्रत्येक कठिन, जटिल, दुखगाह प्रश्नों पर उनकी बुद्धि कदापि अकृत्कार्य नहीं रहती। वे विशेष रूप से प्रत्युत्पन्न-मतिशाली (Presence of Mind) होते हैं।
. प्रयोग शब्द 'प्र' उपसर्ग और 'योग' शब्द के मेल से बनता है। 'योग' शब्द 'युज' धातु से बनता है, जो जोड़ने के अर्थ में है। 'युनक्तीति योगः' - जो योजित करता है, वह योग है। प्रयोग का अर्थ किसी क्रिया में प्रकृष्ट रूप में, विशिष्ट रूप में जुड़ना है। जहाँ कर्म के साथ व्यक्ति की मानसिकता भी रहती है। अत एव उसका निष्कर्ष या परिणाम सार्थक होता है। आचार्य में क्रियागत, प्रयोगात्मक वैशिष्ट्य अपेक्षित है। क्योंकि आचार्य के प्रत्येक कार्य की फलनिष्पत्ति उनके अपने लिए ही नहीं होती, औरों पर भी उसका प्रभाव होता है। . .
आचार्य के जीवन में अन्य मतवादियों से शास्त्रचर्चा के प्रसंग आते ही रहते हैं। वहाँ सफल या विजेता होने के लिए उन्हें यह ध्यान देना आवश्यक है कि वह क्षेत्र कैसा है, जिस परिषद् में चर्चा हो रही है। वह किस योग्यता की है, उनमें स्वपक्ष या परपक्ष के व्यक्ति किस कोटि के हैं, निरूपणीय विषय, हेयोपादेयता की दृष्टि से कैसा है, स्वयं में विषय के प्रस्तुतीकरण आदि का सामर्थ्य कैसा है? अर्थात् इन विषयों में आचार्य की विशेषता हो। ऐसे आचार्य वाद में निष्णात एवं सफल होते हैं, आर्हत् प्रवचन की प्रशस्ति एवं अभिवृद्धि करते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org