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________________ अष्टविध गणिसंपदा २९ ***** ★kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk . का कभी अभिमान नहीं करते, क्योंकि अहंकार विकास का बाधक है। निर्मल आचार, स्वावलम्बी जीवन, ममत्वशून्य व्यवहार तथा लोककल्याण की दृष्टि से आचार्य नियमानुरूप, मर्यादानुरूप जनपद विहारी होते हैं। वे किसी एक स्थान पर स्थिर रूप में नहीं रहते। इसीलिए कहा गया है - बहता जल और पर्यटनशील - विहरणशील संत निर्मल होते हैं। आचार्य के स्वभाव में वृद्धों, अनुभवीजनों की तरह गंभीरता होती है, इससे उनका आचार अलंकृत-- विभूषित बनता है। आचार के पश्चात् शास्त्र ज्ञान या विद्या का स्थान है। शास्त्रज्ञान को श्रुत कहा गया है। लिपिबद्ध होने से पूर्व शास्त्रज्ञान की परंपरा श्रवण या सुनने के आधार पर चलती रही। शिष्य गुरुजन से श्रवण करते, उसे स्मृति में रखते, यों आगे से आगे ज्ञान चलता रहता। . 'श्रु' धातु के आगे 'क्त' प्रत्यय जोड़ने से श्रुत शब्द बनता है, जिसका अर्थ 'सुना हुआ है। सुना हुआ ही उत्तरोत्तर सुना जाता रहा। श्रवण के माध्यम से गतिशील रहा। श्रुत कहे जाने का यह एक हेतु है। . बहुमतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता तथा घोषविशुद्धिकारकता के रूप में जो चार श्रुत संपदाओं का उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि आचार्य अनेक आगमों एवं शास्त्रों के अध्येता होते हैं। उनमें निहित गंभीर आशय, अभिप्राय, रहस्य एवं तत्त्व से सुपरिचितउनके विशेषज्ञ होते हैं, अपने सिद्धान्तों के साथ-साथ वे पर सिद्धान्तों के भी ज्ञाता होते हैं। ऐसा होने से वे तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक रूप में अपने सिद्धान्तों को स्थापित करने में समर्थ होते हैं। घोष विशुद्धि के रूप में जो चौथी श्रुत संपदा का उल्लेख हुआ है, इसका तात्पर्य यह है कि उनका उच्चारण सर्वथा शुद्ध होता है। धर्मदेशना, धर्मोपदेश आदि में उच्चारण की शुद्धता तथा स्पष्टता की विशेष आवश्यकता है। वैसा होने से प्रवचन या उपदेश बहुत प्रभावकारी होता है। साधु जीवन का परम लक्ष्य आध्यात्मिक विकास है। यद्यपि शरीर गौण है किन्तु वह एक साधक के लिए साधना में उपकरण रूप है। अतः उसका भी अपना एक दृष्टि से महत्त्व है। आचार्य के लिए इस बात का और अधिक महत्त्व है। आत्मकल्याण के साथ-साथ साधु-साध्वी संघ का विद्या एवं चारित्रमय विकास, जन-जन में अहिंसामूलक धर्म का व्यापक प्रचार, आर्हत् प्रवचन, धर्मशासन की प्रशस्ति आदि का आचार्य पर विशेष दायित्व है। अत एव शारीरिक अंगोपांगों, इन्द्रियों की पूर्णता, सुदृढ़ एवं समुचित अनुपात युक्त संहनन, दैहिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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