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.. १. आलोचना - स्वीकृत व्रतों का यथाविध पालन करते हुए छद्मस्थता के कारण जो अतिक्रमण आदि दोष लगे हों, उन्हें गुरु के सन्मुख निवेदन करना। . २. प्रतिक्रमण - अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भी जो भूले हुई हैं, उनका "मिच्छामि दुक्कडं" शब्द का उच्चारण कर अपने दोषों से निवृत्त होना।
३. तदुभय - मूल अथवा उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की निवृत्ति के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना। . ४. विवेक - गृहीत भक्त-पान आदि के सदोष ज्ञात होने पर उन्हें परवना।
५. व्युत्सर्ग - गमनागमन करने पर, निद्रावस्था में बुरा स्वप्न आने पर, नौका आदि से नदी पार करने पर इत्यादि प्रवृत्तियों के बाद निर्धारित श्वासोच्छ्वास काल प्रमाण काया का उत्सर्ग करना अर्थात् खड़े होकर ध्यान करना। ____६. तप - प्रमाद-विशेष से अनाचार के सेवन करने पर गुरु द्वारा दिये गये तप का आचरण करना।
. ७. छेद - अनेक व्रतों की विराधना करने वाले और बिना कारण अपवाद मार्ग का सेवन करने वाले साधु की दीक्षा का छेदन करना छेद प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त छह माह तक का हो सकता है। इससे अधिक प्रायश्चित्त देना आवश्यक होने पर मूल (नई दीक्षा) प्रायश्चित्त दिया जाता है।
८. मूल - जो साधु-साध्वी जानबूझ कर द्वेष भाव से किसी पंचेन्द्रिय प्राणी की घात करे, मृषांवाद आदि पापों का अनेक बार सेवन करें और स्वतः आलोचना न करे तो उसकी पूर्वगृहीत दीक्षा का सम्पूर्ण छेदन करना मूल प्रायश्चित्त है। - ९. अनवस्थाप्य - हिंसा, चोरी आदि पाप करने पर जिसकी शुद्धि मूल प्रायश्चित्त से भी संभव न हो, उसे गृहस्थ वेष धारण कराये बिना पुनः दीक्षित न करना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। इसमें अल्पकाल के लिए गृहस्थ वेष धारण करना आवश्यक है। . १०. पाराञ्चिक - अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से भी जिनकी शुद्धि संभव न हो, ऐसे विषय, कषाय या प्रमाद की तीव्रता से दोष सेवन करने वाले को जघन्य एक वर्ष उत्कृष्ट बारह वर्ष तक गृहस्था वेष धारण कराया जाता है एवं उस वेष में साधु के सब व्रत नियमों का पालन कराया जाता है, उसके पश्चात् नवीन दीक्षा दी जाती है।
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