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________________ [4] Jain Education International पांच भेदों में दूसरा भेद छेदोपस्थापनीय चारित्र है । जिसका आशय पूर्व पर्याय का छेद करके जो नवीन रूप से महाव्रत आरोपण करना है । इन छेद सूत्रों में संयमी साधक के संयमी जीवन में किसी प्रकार के दोष लगने पर उन्हें प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने का वर्णन है । संयमी साधक पांच आचार का पालक होता है। ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, इन पांच आचार के बीच में चारित्राचार को स्थान देने का आशय है कि ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार तथा वीर्याचार की समन्वित साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो। इसका एक मात्र साधन चारित्राचार है । चारित्राचार के अर्न्तगत पांच समिति - तीन गुप्ति रूप प्रवचन माता का यथाविध पालन करना आवश्यक हैं। पांच समितियाँ साधक के लिए निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति रूप है और तीन गुप्तियाँ तो मात्र निवृत्ति मूलक ही है। इन प्रवचन रूप आठ प्रवचन माता का संयमी साधक यद्यपि पूर्ण सावधानी रखता हुआ पालन करता है। फिर भी विषय कषाय, राग-द्वेष आदि कारण उपस्थित होने पर अथवा अनिच्छा से, विस्मृति से और प्रमाद से समिति, गुप्ति, महाव्रत, संयम मर्यादा में यदाकदा स्खलना होना स्वभाविक है । वह स्खलना अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार अथवा अनाचार रूप में हो सकती है। अतः उनकी शुद्धि के लिए छेद सूत्रों में प्रायश्चित्त का विधान किया है। जिसे ग्रहण करके अपने संयम रत्न को पुनः उज्ज्वल किया जा सकता है। यानी साधक अपने मूलगुण, उत्तरगुण में प्रतिसेवना का घुन लग जाने पर, वह उनके परिहार के लिए प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर सकता है। इसीलिए आगमकार महर्षियों ने छेद सूत्रों को उत्तम सूत्र माना है। इसका समाधान करते हुए फरमाया है कि छेद सूत्रों में प्रायश्चित्त विधि का निरूपण है, उससे चारित्र की शुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रुत उत्तम माना गया है। श्रमण जीवन में क्या कल्पनीय और क्या अकल्पनीय है ? उनकी मर्यादा, कर्त्तव्य इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन किया गया है। साधना जीवन में प्रविष्ट असंयम अंश को काट कर पृथक करना, दोष मलिनता को निकाल कर साफ करना, भूलों से बचने के लिए सतत् सावधान सतर्क रहना, भूल होने पर प्रायश्चित्त आदि ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेद सूत्रों का विषय है । भगवती / सूत्र शतक ६ उद्देशक ६ तथा उववाई सूत्र में प्रायश्चित्त के दस भेद बतलाये. गये हैं यथा - १. आलोचना २ प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल ९. अनवस्थाप्य १०. पाराञ्चिक । ****** For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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