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तेतीस आशातनाएं
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ज़यं चरे जयं चिट्ठे, जयं आसे जयं सए। जयं भुजतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ॥ . (दशवै० अ० ४ गाथा ८)
इस गाथा में गमनागमन, खान-पान, रहन-सहन आदि में यतनापूर्वक कार्यशील रहने का जो उपदेश दिया है, उसमें समग्र श्रमण जीवन का हार्द है। जो इसे अपना लेता है, वह आशातना आदि के दोषों से अपने को बचाने में समर्थ हो जाता है। यह सामर्थ्य प्राप्त हो, इसके लिए इन दोषों के छोटे-बड़े सभी पक्षों को नवशिक्षार्थी के लिए जानना आवश्यक है। अत एव जीवनगत क्रियाओं को विविध रूप में व्याख्यात करते हुए उनकी दूषणीयता को तेतीस भागों में बांटा है।
मुख्यतः इनका संबंध विनय से है। विनय बड़ों के प्रति होता है। बड़ों को किसी भी प्रकार खेद, शातना आदि उत्पन्न न हो, ऐसा कोई काम नवदीक्षित साधु न करे, अतः इसे आशातना नाम दिया गया है।
जैन जगत् के महान् मनीषी श्री हरिभद्र सूरि ने, जो जैन योग के उद्भावक आचार्य माने जाते हैं, अपने 'योगबिन्दु' नामक संस्कृत ग्रन्थ में अध्यात्मयोग के साधकों को अपने प्रारंभिक अभ्यास के रूप में पूर्व सेवा' के नाम से कतिपय नियमों के पालन का विधान किया है, जो गुरुजन के प्रति विविध रूप में विनयमूलक आचरण के सूचक हैं, जिन्हें उपात्त करना अध्यात्मयोगी के लिए अत्यन्त आवश्यक है। संयम साधना मूलक आध्यात्मिक योग के पथ पर आरूढ होने का यह प्रथम सोपान है। विशाल भवन की भूमि में गड़ी नींव की तरह यह विनयमूलक चर्या साधना के उच्च प्रासाद का मुख्य आधार है। इसीलिए इसका इतने विस्तार से वर्णन हुआ है। जैन आगमों में वर्णन पद्धति के दो रूप हैं - विस्तार रुचिपूर्ण और संक्षेप रुचिपूर्ण। नवशिक्षार्थियों और नवदीक्षितों को प्रत्येक विषय विस्तार के साथ, खोलखोलकर बताया जाना अपेक्षित है। क्योंकि उनमें अध्यात्म और संयम के पवित्र संस्कारों को ढालना होता है। "यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारोनाऽन्यथा भवेत्" - कुंभकार द्वारा नये पात्र में जो संस्कार भर दिया जाता है, जब तक वह घट रहता है, तब तक वह विद्यमान रहता है। उसी प्रकार नवावस्था में जो पावन संस्कार ढाल दिए जाते हैं, वे यावजीवन अमिट रहते हैं। .
यह विवेचन इसी पृष्ठ भूमि पर आधारित है। - ॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की तीसरी दशा समाप्त॥
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