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________________ २०७५ दशविध वैयावृत्य : महानिर्जरा AAAAAAAAAAAAAAditatiktikkakkakakakakakakkartikkakkakkatarike - नवदीक्षित साधु की सेवा करने का इसलिए महत्त्व है कि उसे साधु-जीवन का अनुभव नहीं होता। क्योंकि अनुभव तो शनैः-शनैः समय बीतने पर ही प्राप्त होता है। अत एव उनकी वैयावृत्य उनको संयमपथ पर आगे बढ़ाने में सहायक होती है। ऐसी सेवा - परिचर्या करने वाले साधु के मन में उदारता, शालीनता एवं अध्यायत्म-पोषकता का भाव समुदित होता है। जिन मुनियों का रुग्णता या तपस्या के कारण शरीर विशेष दुर्बल एवं क्षीण हो जाता है, उन्हें स्वयं अपने दैहिक कार्य करने में अत्यधिक कठिनाई होती है। अत एव उनकी सेवा करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो साधु उनकी वैयावृत्य करता है, उसकी आत्मा में सौम्यता, सहृदयता एवं सहयोगिता का उत्कृष्ट भाव उत्पन्न होता है। एक साथ, एक गण या गच्छ में साधनाशील श्रमण-निर्ग्रन्थों का जीवन पारस्परिक सहयोग से ही चलता है। सामूहिक जीवन पारस्परिक सहयोग के बिना भलीभाँति चल नहीं सकता। प्रत्येक साधर्मिक को कभी न कभी, किसी सेवा कार्य की आवश्यकता हो ही जाती है। साधर्मियों की सेवा की परंपरा का महत्त्व होने के कारण उस समय उसे कोई कठिनाई . नहीं होती। तत्काल सहयोग प्राप्त हो जाता है, अपेक्षित सेवा-परिचर्या प्राप्त हो जाती है। अत एव साधर्मिक-वैयावृत्य का भी अत्यन्त महत्त्व माना गया है। - उपर्युक्त दसों प्रकार के वैयावृत्य करने वाले श्रमण-निर्ग्रन्थों को महानिर्जरा और महापर्यवसान . करने वाला बतलाया गया है। क्योंकि इन दसों ही प्रकार की वैयावृत्य करते समय, करने वाले की आत्मा में पवित्र एवं शुद्ध भावों का उद्गम होता है, जो महानिर्जरा तथा महा कर्मक्षय का हेतु होता है। इन सूत्रों में प्रयुक्त महापर्यवसान(महापावसाणे) की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "महत् - पुनः अबन्धकत्वेन पर्यवसानम् - ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मणाम्, परि - समन्तात् - आत्मप्रदेशात्, अवसानमन्तः, जातो यस्य स महापर्यवसानः।" . अर्थात् जिससे ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का, जो आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हैं, सर्वथा नाश हो गया हो, वह यहाँ महापर्यवसान शब्द द्वारा अभिहित है। . ___ आत्मा के निर्मल, उज्वल, शुद्ध परिणामों की धारा ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट कर्मपुद्गल निर्जीण होते जाते हैं - झड़ते जाते हैं। यह क्रम चलता रहे तो कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाता है, जीव मोक्षगामी बन जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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