SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 531
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशविध वैयावृत्य : महानिर्जरा गिलाणवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ३१० ॥ साहम्मियवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ३११ ॥ कुलवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ३१२ ॥ गणवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ३१३॥ संघवेयावच्चं करेमाणे समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ ३९४ ॥ त्ति बेमि ॥ २०५ ******** कठिन शब्दार्थ - दसविहे दस प्रकार का, तवस्सिवेयावच्चे तपस्वी - वैयावृत्य, गिलाण - ग्लान रोग अथवा तप के कारण दुर्बल, क्षीण, महाणिज्जरे - महानिर्जरा अत्यंत कर्म-क्षय करने वाला, महापज्जवसाणे- महापर्यवसान सर्व कर्मक्षयकर - कर्मों के सभी प्रकारों का क्षय करने वाला । प्रतिपादित हुआ है, जो इस भावार्थ ३०४. दस प्रकार का वैयावृत्य परिज्ञापित प्रकार है - १. आचार्य - वैयावृत्य, २. उपाध्याय - वैयावृत्य, ३. स्थविर - वैयावृत्य, ४ तपस्वी - वैयावृत्य, .. ५. शैक्ष-वैयावृत्य, ६. ग्लान- वैयावृत्य, ७. साधर्मिक - वैयावृत्य, ८. कुल-वैयावृत्य, ९. गणवैयावृत्य एवं १०. संघ - वैयावृत्य । ३०५. आचार्य की वैयावृत्य करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ कर्मों की अत्यन्त निर्जरा करता है, अत्यन्त पर्यवसान नाश करता है। ॥ ववहारस्स दसमो उद्दसेओ समत्तो ॥ १० ॥ ॥ ववहारसुत्तं समत्तं ॥ - - ३०६. उपाध्याय की वैयावृत्य करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ कर्मों की अत्यन्त निर्जरा करता है, अत्यन्त पर्यवसान नाश करता है। Jain Education International ३०७. स्थविर की वैयावृत्य करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ कर्मों की अत्यन्त निर्जरा करता अत्यन्त पर्यवसान नाश करता है। ३०८. तपस्वी की वैयावृत्य करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ कर्मों की अत्यन्त निर्जरा करता अत्यन्त पर्यवसान नाश करता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy