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________________ यवमध्य एवं वज्रमध्व चंद्रप्रतिमाएँ अष्टमी के दिन आहार और पानी की सात-सात दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करें। नवमी के दिन आहार और पानी की छह-छह दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे । दशमी के दिन आहार और पानी की पाँच-पाँच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे । एकादशी के दिन आहार और पानी की चार-चार दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे। द्वादशी के दिन आहार और पानी की तीन-तीन दत्तियाँ ग्रहण करना. कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियां होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे । त्रयोदशी के दिन, आहार और पानी की दो-दो दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे । चतुर्दशी के दिन आहार और पानी की एक-एक दत्ति ग्रहण करना कल्पता है यावत् उपर्युक्त स्थितियाँ होने पर वह आहार- पानी ग्रहण करे अन्यथा ग्रहण न करे । अमावस्या के दिन वह आहारार्थी नहीं होता - उपवास करता है। ' १८१. **** इस प्रकार यह यवमध्य चन्द्रप्रतिमा यथासूत्र - सूत्रों में वर्णित सिद्धान्तानुरूप, यथाकल्प - कल्पानुरूप यावत् जिनाज्ञा के अनुरूप अनुपालित होती है। २६८. जो साधु वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा को स्वीकार करता है, वह सदा दैहिक ममत्व से दूर रहता है तथा शरीर पर होने वाले परीषहों और उपसर्गों से अतीत रहता है, उनकी जरा भी चिन्ता नहीं करता । जो भी कोई देव, मनुष्य या तिर्यंच विषयक अनुकूल या प्रतिकूल परीषह तथा उपसर्ग उत्पन्न हों, जैसे - कोई उसे वंदना करे, नमस्कार करे, सत्कार करे, सम्मान करे, कल्याणकर, मंगलमय, धर्मदेव स्वरूप एवं ज्ञान स्वरूप मानता हुआ पर्युपासना करे तथा कोई डण्डे, हड्डी सेब प्रहारक साधन, मुष्टिका मुक्के, मोटे रस्से, बेंत एवं चमड़े के चाबुक से उसके शरीर पर प्रहार करे, ताड़ित करे- दोनों (अनुकूल-प्रतिकूल परीषहोपसर्ग) ही परिस्थितियों में वह (साधु) यह सब निर्विकार भाव से सहन करे, क्षमा करे क्षन्तव्य माने, निर्जरा भाव से, निश्चल भाव से सहन करे । Jain Education International For Personal & Private Use Only ****** - www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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