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________________ १४५ शय्यासंस्तारक-विषयक विधि-निषेध : पुनः अनुज्ञा । *Akkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतिय वा सेज्जासंथारगं सव्वप्पणा अप्पिणित्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणुण्णवेत्ता अहिद्वित्तए॥२१०॥... कठिन शब्दार्थ - बहिया - बाहर, णीहरित्तए - निर्हत करना - ले जाना, सव्वप्पणासर्वात्मना - सब प्रकार से, अप्पिणित्ता - अर्पित कर - सौंप कर, अहिद्वित्तए - अधिष्ठित करना - लेना। ___ भावार्थ - २०८. साधुओं तथा साध्वियों को प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ के यहाँ से, शय्यातर के यहाँ से लाए हुए शयनपट्ट आदि उनसे पुनः आज्ञा लिए बिना अन्यत्र ले जाना नहीं कल्पता। २०९. साधुओं तथा साध्वियों को प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ के यहाँ से, शय्यातर के यहाँ से लाए हुए शयनपट्ट आदि उनसे पुनः आज्ञा लेकर ही अन्यत्र ले जाना कल्पता है। २१०. साधुओं तथा साध्वियों को प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ के यहाँ से, शय्यातर के यहाँ से लाए हुए शयनपट्ट आदि उनको सर्वात्मना - सर्वथा सौंप देने के बाद पुनः उनकी अनुज्ञा लिए बिना अधिष्ठित करना, गृहीत करना नहीं कल्पता। अनुज्ञा लेकर ही अधिष्ठित करना, उपयोग में लेना कल्पता है। , विवेचन - जैन साधुओं एवं साध्वियों का जीवन अपरिग्रह का जीवंत प्रतीक है। . आवश्यक वस्तुएं वे गृहस्थों से याचित कर लेते हैं। वे दो प्रकार की हैं - एक तो वे हैं जो आहार-पानी या औषधि के रूप में ली जाती हैं। उनका भोजन, पथ्य आदि के रूप में उपयोग हो जाता है। दूसरी-पुस्तकें, शयनपट्ट, लेखिनी आदि ऐसी वस्तुएं हैं जो उपयोग में लेने के अनन्तर- वापस लौटा दी जाती हैं। उन्हें प्रातिहारिक कहा जाता है। उनको आवश्यकतानुरूप. साधु-साध्वी उपयोग में लेते हैं। ऐसा कहते हुए जरा भी उनके मन में उन वस्तुओं के प्रति आसक्ति न हो, इस संबंध में आगमों में कुछ विशेष विधि-निषेध है। उसी संदर्भ में इन सूत्रों में वर्णन है। यदि किसी साधु या साध्वी को प्रातिहारिक रूप में गृहीत की गई शयनपट्ट आदि वस्तु अपने उपाश्रय से - ठहरने के स्थान से आवश्यकतावश बाहर - कहीं दूसरी जगह ले जानी हो तो वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना उन्हें वैसा करना नहीं कल्पता। अनुज्ञा लेकर ही प्रातिहारिक वस्तु को बाहर ले जाना उन्हें कल्पता है। साधु साध्वियों में प्रातिहारिक वस्तुओं के प्रति सर्वथा अनासक्त भाव उज्जीवित रहे, इस दृष्टि से यह विधि-निषेध मूलक वर्णन बहुत महत्त्वपूर्ण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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