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व्यवहार सूत्र - अष्टम उद्देशक
संघादि के प्रयोजन से एवं दुष्कालादि के कारण सेवा में रहने वाले संतों को अन्यत्र भेज देने से स्थविर - जो कि वयोवृद्ध भी है - अकेले रहे हो, शरीर में साधारण समाधि होने के कारण जो आहार-पानी तो ला सकते हो, किन्तु सब भण्डोपकरण साथ में नहीं रख सकते हो तथा उपाश्रय के किवाड़ नहीं होने के कारण भंडोपकरण बालकों आदि के द्वारा नष्ट किये जाने का भय हो, तो ऐसी स्थिति. में वे स्थविर जहाँ पर हरदम लोग बने रहते हो वैसे उपाश्रय (घर) में अपने भंडोपकरण रख कर तथा उन्हें संभला कर भिक्षा के लिए जावे और भिक्षा से निवृत्त होने के बाद वापिस अपने भंडोपकरणों को उन गृहस्थों से पूछ कर लेवे, जिससे उनके ध्यान में रहे कि वे अपने भंडोपकरण वापिस ले गये हैं। दंड, छत्र (वस्त्र अथवा पुढे आदि की पाटली, जिससे शीत तापादि की रक्षा की जा सके) चर्मादि (पाँव आदि में घाव आदि के पड़ जाने के कारण उस पर बांधने के लिए चर्मादि रखना पड़े) जो विशेष उपकरण बताये हैं, वे वृद्धतादि कारण से बताये गये हैं, ऐसा ध्यान में हैं।
वृद्ध स्थविर के लिए जिन वस्तुओं के प्रयोग की सुविधाएँ विहित हैं, उससे स्पष्ट है कि जैन-दर्शन किसी भी विषय में दुराग्रह या कट्टरता लिए हुए नहीं है। अपने मूल व्रतों की रक्षा करते हुए श्रमण निर्ग्रन्थों को विशेष परिस्थिति में जो सुविधाएं दी गई हैं, उसका अभिप्राय उनके संयममय, तपोमय जीवन में सहयोग करना है। व्यवहारनय की दृष्टि से यह वास्तव में उपयोगी है। अनेकान्तवादी दर्शन की यही तो विशेषता है कि वहाँ किसी भी विषय का निर्णय ऐकान्तिक आग्रह के साथ नहीं किया जाता वरन् अपरिहार्य अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया जाता है, जो संयम-जीवितव्य को पोषण प्रदान करता है।
शय्यासंस्तारक-विषयक विधि-निषेध : पुनःअनुज्ञा णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चं पि ओग्गहं अणणुण्णवेत्ता बहिया णीहरित्तए॥२०८॥ __ कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चं पि ओग्गहं अणुण्णवेत्ता बहिया णीहरित्तए॥२०९॥
णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं सव्वप्पणा अप्पिणित्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणणुण्णवेत्ता अहिट्टित्तए, .
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