________________
१३
इक्कीस शबल दोष aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa*
'राजपिण्ड' का जो उल्लेख हुआ है, वह भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जैन चिन्तनधारा की सूक्ष्मता व्यक्त करता है। राजा के यहाँ स्वादिष्ट, उत्तम भोजन बनते हैं। राजसिक भोजनगृह में विगय-प्रधान स्वादिष्ट, गरिष्ठ भोजन तैयार होता है। वैसा औद्देशिक न हो तो भी उसे अग्राह्य इसलिए माना है क्योंकि वह राजसिक-तामसिक वृत्तियों को बढ़ाता है। राजा के यहाँ आमिषादि अनेषणीय पदार्थों का परिपाक भी होता है। भोगविलासमय जीवन का वातावरण रहने से और भी अनेक विघ्न आशंकित हैं।
पाँचों महाव्रतों में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है। यह ऐसा महाव्रत है, जिसमें अन्य चारों का समावेश हो जाता है। क्योंकि अन्य चारों में मानसिक, वाचिक, कायिक रूप में हिंसा निषेध का समावेश है ही। यही कारण है कि दोषों में अप्काय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय आदि सूक्ष्म, स्थूल जीवों की हिंसा से बचने की दृष्टि से अनेक रूप में दैनंदिन क्रियाकलापों में बचते रहने का संकेत हुआ है। . अब्रह्मचर्य, जिह्वालौल्य, जानबूझकर हिंसापूर्ण कार्य - ये नि:संदेह श्रमण जीवन की पवित्रता, उज्ज्वलता को कलुषित करते हैं, एक प्रकार से ये ऐसे दोषपूर्ण धब्बे हैं, जिनसे श्रमण जीवन अवहेलनीय हो जाता है।
दुर्लभ शय्यादि के प्रसंग पर नहीं चाहते हुये भी मकान की प्राप्ति के लिए साधारण माया की स्थिति बन सकती है ऐसी माया का प्रसंग एक महीने में दो बार और पूरे शेषकाल के आठ महीनों में ९ बार आ सकता है इसलिए आगमकारों ने इससे अधिक माया-स्थान को सबल कहा है। अन्य कषाय क्रोध, मान, लोभ तो अपने आप में सबल (दोष) है ही।
॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की दूसरी दशा समाप्त॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org