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________________ ११७ अन्य गण से आगत सदोष साध्वी को गण में लेने का विधि-निषेध Aakataxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxaaaaaaaaaaaaaaaaaaaat प्रायश्चित्त कराकर उसके साथ साधर्मिकोचित पृच्छा करना, उसे वाचना देना, चारित्र में उपस्थापित करना - अपने गण में सम्मिलित करना, स्वीकार करना, साधु-जीवनोचित उपधि आदि वस्तुओं के लिए लेन-देन का आपस में व्यवहार करना, साथ में रहना, स्वल्प काल के लिए उसे दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना कल्पता है।] विवेचन - जिस द्वारा आचार-विषयक दोष-सेवन हुआ हो, वैसी अन्य गण से आई हुई साध्वी को किसी अन्य गण के साधु और साध्वी उससे यथावत् आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि कराकर, दोष शुद्धि कराकर, आत्म-विशुद्धि कराकर पुनः वैसा. कोई दोष आचरित न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा कराकर ही गण में लें, यह कल्पनीय है। तभी उसके साथ साधर्मिकोचित पारस्परिक उपधि आदि वस्तुओं के लेन-देन के संबंध में व्यवहार किया जा सकता है। आलोचना, प्रायश्चित्त आदि कराए बिना उसे गण में स्वीकार करना अकल्प्य है। . जैसा कि विभिन्न प्रसंगों में व्याख्यात हुआ है, शुद्ध संयममय आचार में ही साधुत्व संप्रतिष्ठित है। आचार ही साधु-जीवन की मूल पूंजी है। अत एव उसका सदैव प्राणपण से परिरक्षण किया जाना चाहिए, किन्तु यदि कदाचन कभी आत्म-दौर्बल्यवश आचार-पालन में दोष या भूल हो जाए तो आलोचना, प्रायश्चित्त आदि द्वारा उस दोष का प्रक्षालन किए बिना, जीवन में कभी भी पुनः वैसा न करने की प्रतिज्ञा किए बिना पुनः साधुत्व में उपस्थापित होने की योग्यता घटित नहीं होती। जिस प्रकार सोडे, साबुन आदि से धोने पर वस्त्र का मैल निकल जाता है, वह स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार आलोचना प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि से दोषों का प्रक्षालन, परिमार्जन होता है। इसी संदर्भ में इन सूत्रों में शबलाचार युक्त साध्वी के आलोचना, प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त आदि द्वारा विशुद्धिकरण का, साधुत्व में पुन: उपस्थापन का जो प्रसंग वर्णित हुआ है, वह विशुद्ध साध्वाचार की महिमा का ख्यापक है। ॥व्यवहार सूत्र का छठा उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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