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________________ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - द्वितीय दशा kakkakakakakakakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk इस प्रकार दूसरी दशा का समापन होता है। विवेचन - इस सूत्र में ऐसे दूषित कृत्यों का वर्णन है, जो एक श्रमण के जीवन को कलंकित कर डालते हैं। इन्हें शबल दोष के नाम से संज्ञित किया गया है। "दूषयतीति दोषः" - के अनुसार जो आत्मा को दूषित, विकृत, विभावगत करता है, उसे दोष कहा जाता है। दोष के साथ लगा हुआ शबल विशेषण उसकी अत्यधिक विकृतावस्था का द्योतक (दर्शक) है। शबल शब्द चितकबरे का द्योतक है। किसी गौरवर्ण पर तरह-तरह के लगे धब्बे उसके सौन्दर्य का नाश करते हैं, बड़े भद्दे प्रतीत होते हैं। ये शबल दोष श्रमण जीवन की उजली चद्दर पर लगे हुए वे कलंक के धब्बे हैं, जो उसे विकृत, अतिदूषित बना देते हैं। इनका सेवन श्रमण जीवन के लिए अभिशापवत् है। इस सूत्र में ऐसे इक्कीस कुत्सित कृत्यों का शबल के नाम से उल्लेख है, जिनसे निर्मल, पवित्र साधु जीवन लज्जास्पद हो जाता है। ____इन इक्कीस दोषों का संबंध मुख्यतः वासना, भोजन, आहार, आवास तथा. उपकरणोपयोग इत्यादि दिनानुदिन प्रयोजनीय कार्यों के साथ है। यद्यपि एक श्रमण प्राणातिपात, परिग्रह, अब्रह्मचर्य इत्यादि का सर्वथा मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदित रूप में त्यागी होता है। अतः ऐसे दोष उसके जीवन में घटित हों, यह बहुत कम संभावित है। सामान्यतः वह इनसे अस्पृष्ट होता है। किन्तु वह भी तो एक मानव है। संसारावस्था से विरक्तावस्था में गया है। मन में कभी दुर्बलता आ जाए तो ऐसा आशंकित है, उसके द्वारा न चाहते हुए भी वह अकृत्य बन पड़े। - मन बड़ा चंचल है। इसे वश में कर पाना वैसा ही कठिन है, जैसे हवा को पकड़ पाना। फिर भी वैराग्य और अभ्यास से यह परिग्रहीत किया जा सकता है। ____काम को जो दुर्जेय कहा गया है, वह सच है। जब मन में वासना का उभार आता है तब व्यक्ति अपने स्वरूप को भूल जाता है। काम, भोग, वासना के कारण साधु के मन में चंचलता अस्थिरता न व्यापे इसलिए दोषों में पहले उसी की चर्चा है। - प्राकृत में संभोग के लिए 'मेहुण' शब्द का प्रयोग होता है, जिसका संस्कृत रूप मैथुन है। इसके मूल में 'मिथस्' (मिथः) शब्द है, जिसका अर्थ युगल या जोड़ा है। यह स्त्रीपुरुष के जोड़े के रूप में उपयोग में आता है। स्त्री-पुरुष युगल का यौन संबंध - संभोग 'मैथुन' कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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