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________________ - व्यवहार सूत्र चतुर्थ उद्देश गणधर गणधर का शाब्दिक अर्थ गण या श्रमण संघ को धारण करने वाला, गण का अधिपति या स्वामी होता है। आवश्यक गण अर्थों में प्रयुक्त है। समूह को धारण करने वाले गणधर कहे आगम-वाड्मय में गणधर शब्द मुख्यतः दो तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन ( तीर्थंकर) द्वारा प्ररूपित तत्त्व - ज्ञान का द्वादशांगी के रूप में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गण के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं, गणधर कहे जाते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में भावप्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान गुण के आगम नामक प्रमाण-भेद में बताया गया है कि गणधरों के सूत्र आत्मगम्य होते हैं। - तीर्थंकरों के वर्णन क्रम में उनकी अन्यान्य धर्म-संपदाओं के साथ-साथ उनके गणधरों का भी यथाप्रसंग उल्लेख हुआ है। तीर्थंकरों के सान्निध्य में गणधरों की जैसी परंपरा वर्णित है, वह सार्वदिक् नहीं है। तीर्थंकरों के पश्चात् अथवा दो तीर्थंकरों के अन्तर्वर्ती काल में गणधर नहीं होते। अतः उदाहरणार्थ गौतम, सुधर्मा आदि के लिए जो गणधर शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह गणधर के शाब्दिक या सामान्य अर्थ में अप्रयोज्य है। - ********★★★★★★★★★ Jain Education International ८० वृत्ति में अनुत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गये हैं । गणधर का दूसरा अर्थ, जैसा कि स्थानांग वृत्ति में लिखा गया है, आर्याओं या साध्वियों को प्रतिजागृत रखने वाला अर्थात् उनके संयम-जीवन के सम्यक् निर्वहण में सदा प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं आध्यात्मिक सहयोग करने वाला श्रमण 'गणधर' कहा जाता है। आर्या-प्रतिजागर के अर्थ में प्रयुक्त गणधर शब्द से प्रकट होता है कि संघ में श्रमणी - वृन्द की समीचीन व्यवस्था, विकास, अध्यात्म-साधना में उत्तरोत्तर प्रगति इत्यादि पर पूरा ध्यान दिया जाता था। यही कारण है कि उनकी देख-रेख और मार्गदर्शन के कार्य को इतना महत्त्वपूर्ण समझा गया कि एक विशिष्ट श्रमण के मनोनयन में इस पहलू को भी ध्यान में रखा जाता था । * अनुत्तरज्ञानदर्शनादिगुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः । * प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम .. इन चार प्रमाणों का वहाँ वर्णन हुआ है। आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः । - For Personal & Private Use Only - आवश्यकनिर्युक्ति गाथा १०६२ वृत्ति — स्थानांग सूत्र ४.३.३२३ वृत्ति www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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