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उपस्थापन विधि
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संक्षेप में, सार यह है कि स्थविर संयम में स्वयं अविचल-स्थितिशील होते और संघ के सदस्यों को वैसा बने रहने के लिए उत्प्रेरित करते रहते हैं। ___ गणी - गणी का सामान्य अर्थ गण या साधु-समुदाय का अधिपति है। अतः आचार्य के लिए भी इस शब्द का प्रयोग देखने में आता है। परन्तु यहाँ यह एक विशिष्ट अर्थ को लिए हुए हैं। संघ में जो अप्रतिम विद्वान, बहुश्रुत श्रमण होता था, उसे गणी का पद दिया जाता था। गणी के संबंध में लिखा है -
अस्य पार्वे आचार्याः सूत्रद्यमभ्यस्यन्ति । अर्थात् आचार्य उनके पास सूत्र आदि का अभ्यास करते हैं।
यद्यपि आचार्य का स्थान संघ में सर्वोच्च होता है। उनमें आचार पालने, पलवाने, संघ के श्रमणों को अनुशासन में रखने, उनको तत्त्व-ज्ञान देने, उनका परिरक्षण तथा विकास करते रहने की असाधारण क्षमता होती है। उनके व्यक्तित्व में सर्वातिशायि ओज तथा प्रभाव होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि संघगत श्रमणों में वे सबसे अधिक विद्वान एवं अध्येता हों। गणी में इस कोटि की ज्ञानात्मक विशेषता होती है। फलस्वरूप वे आचार्य को भी वाचना दे सकते हैं। __इससे यह भी स्पष्ट है कि आचार्य-पद केवल विद्वत्ता के आधार पर नहीं दिया जाता। विद्या जीवन का एक पक्ष है। उसके अतिरिक्त और भी अनेक. पक्ष हैं। जिनके बिना जीवन में समग्रता नहीं आती। आचार्य के व्यक्तित्व में वैसी समग्रता होनी चाहिए, जिससे जीवन के सब अंग परिपूरित लगें। यह सब होने पर भी आचार्य को यदि शास्त्राध्ययन की और अपेक्षा हो तो वे गणी से शास्त्राभ्यास करें। आचार्य जैसे उच्च पद पर अधिष्ठित व्यक्ति एक अन्य साधु से अध्ययन करें, इसमें क्या उनकी गरिमा नहीं मिटती - आचार्य ऐसा विचार नहीं करते। वे गुणग्राही तथा उच्च संस्कारी होते हैं, अतः जो-जो उन्हें आवश्यक लगता है, वे उन विषयों को गणी से पढते हैं। यह कितनी स्वस्थ तथा सुखावह परंपरा है कि आचार्य भी विशिष्ट ज्ञानी से ज्ञानार्जन करते नहीं हिचकते। ज्ञान और ज्ञानी के सत्कार का यह अनुकरणीय प्रसंग है।
* कल्प सुबोधिका, कल्प-९
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