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________________ ४ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - प्रथम दशा ★★★★★kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkat १७. झंझट पैदा करना (जिससे संघ की मर्यादा आहत हो)। १८. कलह करना। १९. सूरज उगने से लेकर छिपने तक कुछ न कुछ खाते ही रहना। २०. एषणा समिति का प्रतिपालन न करते हुए - बिना गवेषणा किए भोजन, जल आदि ग्रहण करना। इस प्रकार स्थविर भगवंतों द्वारा ऐसे बीस स्थान - हेतु बतलाए गए हैं, जिनसे असमाधि उत्पन्न होती है। इस प्रकार प्रथम दशा का समापन होता है। विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त असमाधि शब्द एक विशेष आशय को लिए हुए हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह 'सम' एवं 'आ' उपसर्ग तथा 'धि' धातु के योग से बना है। 'सम' का तात्पर्य सम्यक् या भलीभाँति है। 'आ' व्यापक अर्थ या 'चारों ओर' के अर्थ में प्रयुक्त है। 'धि' धातु का अर्थ धारण करना, अपने आप में स्थिर रहना है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार समाधि का अर्थ आत्मस्थितता या स्वाभाविक अवस्था में रहना है। जहाँ ऐसी स्थिति नहीं होती, उसे असमाधि कहा जाता है। यहाँ निषेधसूचक 'अ' उपसर्ग अभाव का द्योतक है। प्राणातिपात आदि के सर्वथा परित्यागी दूसरे शब्दों में - मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदित रूप में महाव्रताधारक श्रमण का जीवन, यदि वह अपनी विहित चर्या में सदैव अनुरत रहता है तो समाधिमय तथा प्रशान्त होता है। श्रमण में ऐसा होना वांछित है। समाधि शब्द पातंजल योग में निरूपित योग के आठ अंगों में अन्तिम है। योग के आन्तरिक अंग धारणा, ध्यान और समाधि हैं। ध्यानसिद्धि से समाधि अवस्था प्राप्त होती है। ___पतंजलि के शब्दों में जहाँ केवल आत्मस्वरूप भासित हो, उससे भिन्न पदार्थ शून्यवत् हो जाएं, वह स्थिति समाधि है, परमशान्तावस्था है। दोनों ही परंपराओं में प्रयुक्त समाधि शब्द एक ऐसे केन्द्र बिन्दु पर पहुँचता है, जहाँ विभावावस्था का अपगम (अभाव - नाश) और स्वाभावावस्था का अधिगम (लाभ - प्राप्ति) होता है। पपि साधक विकार वर्जन में संकल्पबद्ध होता है किन्तु आखिर वह है तो मानव ही। जब कभी अन्तःकरण में दुर्बलता उभर आती है तो चाहे अनचाहे अनुचित कार्य होना आशंकित है। ऐसी स्थिति साधक के जीवन में कदापि न आए, एतदर्थ इस सूत्र में उन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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