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________________ १३ परिहार-तप निरत भिक्षु का वैयावृत्य हेतु विहार kakkakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkakakakakakakakakakakakkar परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य णो सरेज्जा, कप्पइ से णिव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसिं अण्णे साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए, णो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि णिट्टियंसि परो वएज्जा-वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, णो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जंतत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ, से संतरा छए वा परिहारे वा॥२३॥ परिहारकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेन्जा वा णो सरेज्जा वा कप्पइ से णिव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए, णो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए, तंसि च णं कारणंसि णिट्ठियंसि परो वएज्जा-वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, णो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसइ, से संतरा छए वा.परिहारे वा॥२४॥ कठिन शब्दार्थ - परिहारकप्पट्ठिए - परिहारकल्पस्थित - परिहार-तप में निरत, वेयावडियाए - वैयावृत्य - सेवा के लिए, गच्छेग्जा - जाए, सरेज्जा - स्मरण रखे, एगराइयाए पडिमाए - एक रात्रिक प्रतिमा द्वारा - एक-एक रात रुकता हुआ, जणं जण्णं दिसं - जिस-जिस दिशा में, अण्णे - अन्य - दूसरे, साहम्मिया - साधर्मिक - रुग्ण साधु, तण्णं तण्णं दिसं - उस-उस दिशा को, उवलित्तए - आश्रित करें - जाए, तत्थ - वहाँ, विहारवत्तिय - विहरण - विचरण हेतु, वत्थए - रहना - टिकना, कारणवत्तियंरुग्णता आदि के कारण से, तंसि कारणंसि - उस कारण के, णिद्वियंसि - मिट जाने पर - समाप्त हो जाने पर, परो - अन्य - वैद्य आदि अन्य व्यक्ति, वएग्जा - कहे, वसाहि - रहो - ठहरो, अज्जो - आर्य, एगरायं - एक रात, दुरायं - दो रात, एगरायाओ - एक रात से, हरापाओ - दो रात से। भावार्थ- २२. परिहार-तप में निरत भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) यदि रुग्ण स्थविरोंसाधुओं की सेवा हेतु बाहर - अन्यत्र जाए, स्थविरों ने उसे परिहार-तप छोड़ने की अनुमति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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