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________________ प्रथम उद्देश विवेचन - परिहार, तपश्चरण का एक विशेष प्रकार है, जो दोषों के सम्मार्जन हेतु किया जाता है । बृहत्कल्प सूत्र के चतुर्थ उद्देशक में परिहार-तप के विषय में संक्षेप में चर्चा हुई है। निशीथ सूत्र के चौथे और बीसवें उद्देशक में इस संबंध में विस्तार से वर्णन है। व्यवहार सूत्र 'परिहारे परिहाररूपे तपसि संलग्नः पारिहारिकः ।" जो भिक्षु परिहारतप में संलग्न होता है, उसे पारिहारिक कहा जाता है। संघ में रहते हुए तथा संघ से बाहर एकाकी रहते हुए - यों दोनों प्रकार से इस तप की विधि है। इन दोनों पद्धतियों के अपने . विशेष आशय हैं। जहाँ साथ में रहते हुए यह तप किया जाता है, वहाँ अन्य साधुओं को वैसा देखकर दोष सेवन न करने की विशेष प्रेरणा प्राप्त होती है । जहाँ संघ से बाहर रहते हुए यह तप किया जाता है, वहाँ पारिहारिक भिक्षु द्वारा विशेष रूप से तपपूर्वक निर्जरा करते हुए आत्मशुद्धि करने का अभिप्रेत है । · १२ ✰✰✰✰ परिहार-तप में संलग्न भिक्षु की संघ में रहते हुए भी भिक्षाचर्या, बैठना, उठना, सोना, खाना-पीना आदि अपारिहारिक साधुओं से पृथक् होता है, केवल वह संघ में सम्मिलित होता है । वैसी स्थिति में यदि परिहार- तप में संलग्न भिक्षु तथा अपारिहारिक भिक्षु एक साथ उठना-बैठना चाहें तो वे स्थविरों की आज्ञा के बिना वैसा नहीं कर सकते। यदि करते हैं तो वह दोष है । Jain Education International वर्तमान काल में परिहार- तप विच्छिन्न समझा जाता है। अतः परिहारिक बिना विसंभोगिक किये ही यथाशक्ति तप वहन करता है। अर्थात् शक्ति हो, तो एकान्तर रूप तप वहन करता हैं, अन्यथा उतने छुटकर उपवास किये जाते हैं। आज तो यही प्रथा है । परिहार- तप निरत भिक्षु का वैयावृत्य हेतु विहार परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा, कप्पड़ से एगराइयाए पडिमाएं जण्णं जण्णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए, णो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए तंसि च णं कारणंसि णिट्ठियंसि परो वएज्जा - वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, णो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जं तत्थ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वसई से संतरा छेए वा परिहारे वा ॥ २२ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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