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________________ ११९ परिपतित सचित्त जलबिन्दुमय आहार का ग्रहण विधान ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆ सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि वह तो अपनी अज्ञानता या भूल से अपरिचित होता है। अतः सामने परिष्ठापन से उसकी श्रद्धा को ठेस पहुँच सकती है। पुनश्चयह निर्णय साधु को ही करना होता है कि प्राप्त आहार सर्वथा अचित्त, प्रासुक है या नहीं। परिपतित सचित्त जलबिन्दुमय आहार का ग्रहण विधान णिग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविद्वस्स अंतो पडिग्गहंसि दए वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जेजा, से य उसिणे भोयणजाए, भोत्तव्वे सिया, से य सीए भोयणजाए, तं णो अप्पणा भुंजेज्जा णो अण्णेसिं दावए एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमजित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - दए - जल, दगरए - जलमिश्रित मृत्तिका कण, दगफुसिए - जल बिन्दु - ओस, उसिणे - उष्ण - गर्म। भावार्थ - १२. निर्ग्रन्थ, भिक्षा प्राप्ति हेतु सद्गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और वहाँ प्राप्त आहार में यदि जल, जलयुक्त रजकण या ओस बिन्दु गिर जाए किन्तु भोजन यदि उष्ण हो तो वह परिभोग करने योग्य होता है। यदि भोजन (उष्ण न हो) ठण्डा हो तो न तो स्वयं खाए तथा न अन्यों को दे अपितु एकान्त, सर्वथा प्रासुक एवं स्थंडिल भूमि को प्रमार्जित कर उसे परठ दे। .. विवेचन - इस सूत्र में आहार की शुद्धता पर विशेष रूप से चर्चा की गई है। जीवन के लिए आहार परमावश्यक है। अत: उसके विविध पक्षों को लेकर आगमों में विवेचन हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी स्थिति में अप्रासुक आहार का सेवन न करे। सचित्त जल बिन्दु आदि के गिर जाने पर जो लेने का विधान किया गया है, उसका आशय यह है कि उष्णता के कारण वे जलबिन्दु अचित्त हो जाते हैं, शास्त्रीय भाषा में शस्त्रपरिणत हो जाते हैं। उष्णत्व जलादिगत सचित्तता का नाशक होने से उनके लिए शस्त्र रूप है। जिस प्रकार खड्ग आदि शस्त्र से व्यक्ति का हनन किया जाता है, उसी प्रकार उष्णत्व की तीव्रता से सप्राणता नष्ट हो जाती है। यहाँ इतना विशेष रूप से और ज्ञातव्य है - यदि आहार की मात्रा कम हो, सचित्त पदार्थ अधिक मात्रा में गिरे हों तथा ऐसा प्रतीत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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