________________
बृहत्कल्प सूत्र - पंचम उद्देशक
११८
सचित्त समायुक्त आहार के अशन एवं परिष्ापन का विधान णिग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेजा, तं च संचाएइ विगिचित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं पुव्वामेव विगिंचिय विसोहिय तओ संजयामेव भुंजेज वा पिएज वा, तं च णो संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं णो अप्पणा भुंजेजा णो अण्णेसिं दावए एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमजित्ता परिट्टवेयव्वे सिया॥११॥ __कठिन शब्दार्थ - परियावजेजा - गिर जाए, विगिचित्तए - परिष्ठापित करे, विसोहेत्तए - विशोधित करे। .
- भावार्थ - ११. सद्गृहस्थ के घर में अशन-पान हेतु संप्रविष्ट साधु के पात्र में यदि कोई प्राणी (सूक्ष्म), बीज या सचित्त रज गिर जाए और यदि उसे अलग किया जा सके, विशोधित किया जा सके - आहार को तद्रहित किया जा सके तो उसे पहले लाकर सचित्त प्राणी आदि को निकाल दे, यों आहार को विशोधित करे, तदनन्तर यतनापूर्वक उसका उपयोग करे। ____ यदि आहार को विशोधित करना संभव न हो तो न स्वयं उसका उपयोग करे और न दूसरों को ही दे अपितु एकांत, स्थंडिल भूमि को प्रतिलेखित, प्रमार्जित कर वहाँ उसे परठ दे।
विवेचन - भिक्षु के प्रति अत्यंत श्रद्धाशील श्रमणोपासक उन्हें भिक्षा देते समय यह सदैव ध्यान रखते हैं कि उन द्वारा आचरित नियम-उपनियमों का वे सदैव पालन करें। अतः साधुओं को सदैव सर्वथा प्रासुक एवं एषणीय आहार ही प्रदान करते हैं। ___कदाचित् ऐसे प्रसंग बन जाते हैं कि भूलवश या अज्ञानतावश किसी अचित्त, एषणीय खाद्य पदार्थ के साथ सचित्त द्वीन्द्रिय आदि छोटे प्राणी अथवा सचित्त बीज आदि चिपक कर आ जाते हैं। इन्हें यदि सावधानीवश, बिना हानि पहुँचाए अलग करना संभव हो तो अवश्य ही अलग कर देना चाहिए तथा अवशिष्ट अचित्त पदार्थ का उपयोग करना चाहिए।
- यदि ऐसा पदार्थ(तरल आदि)हो, जिसमें से अलग किया जाना संभव नहीं हो तो साधु के लिए उसे सर्वथा प्रासुक एषणीय एवं स्थंडिल भूमि में परठ देना चाहिए। . . ___ भाष्यकार ने अन्य दिशा-निर्देशों के साथ यह भी बतलाया है कि परिष्ठापन श्रावक के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org