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________________ १०५ परिहार तप में अवस्थित भिक्षु का वैयावृत्य विधान *****************AAAAAAAA*********************************** उसे प्रवास स्थान के बाहर स्वाध्यायभूमि या उच्चारप्रस्रवण भूमि हेतु आना-जाना नहीं कल्पता। उसे ग्रामानुग्राम विहार करना नहीं कल्पता। एक गण से दूसरे गण में सम्मिलित होना तथा वर्षावास करना नहीं कल्पता। जहाँ उसके अपने बहुश्रुत एवं आगमज्ञ आचार्य तथा उपाध्याय हों, उनके पास आलोचना, प्रतिक्रमण,निन्दा, गर्हा आदि द्वारा (अपने पापकर्म का)विशोधन कर दोष निवृत्ति करे। - यदि उसे शास्त्रानुसार प्रस्थापित किया जाए - प्रायश्चित्त द्वारा दोषनिरूपणपूर्वक पुनः स्थापित किया जाए तो उसे स्वीकार करे। यदि शास्त्रमर्यादानुरूप उसे प्रस्थापित न किया जाए तो वह स्वीकार न करे। यदि शास्त्रानुसार प्रस्थापित किए जाने पर भी वह (प्रायश्चित्त आदि) स्वीकार न करे तो उसे संघ से निर्वृहित - पृथक् कर देना चाहिए। विवेचन - क्रोध एक ऐसा विकार है, जिसमें मानव अपना आपा खो देता है। अपने . स्वरूप को भूल जाता है। सामान्यतः भिक्षु सदा जागरूक रहे कि वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी कोपाविष्ट न हो। किन्तु वह भी साधनावस्था में है, अतः मानवीय दुर्बलतावश कभी वह तीव्र क्रोधाभिभूत हो जाय तो उसे अपने क्रोध को उपशान्त कर देना चाहिए। यदि ऐसा न कर पाए तो वैसे भिक्षु को इस स्थिति में बाहर जाना इसलिए नहीं कल्पता क्योंकि उस द्वारा अपने साधनामय जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल करणीय का (ऐसी दशा में) भान नहीं रहता। साथ ही साथ क्रोधाविष्ट दशा में देखने पर उपासकों के मन में भिक्षु के त्याग-वैराग्यमय जीवन का आदर्श चित्र होता है, उसे ठेस पहुंचती है, पीड़ा होती है और अश्रद्धा भी। ___ यह भी यहाँ ज्ञातव्य है कि क्रोधावेश चाहे कितना भी तीव्र हो, सामान्यतः वह चिरस्थायी नहीं होता क्योंकि क्रोध कादाचित्क है, सार्वदिक् नहीं है। कोई भी व्यक्ति निरंतर क्रोध, हिंसा आदि में प्रवृत्त नहीं रह सकता। अहिंसा, शान्ति आदि आत्मगुणों में ही प्रवृत्ति का सातत्य है। परिहार तप में अवस्थित भिक्षु का वैयावृत्य विधान परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरियउवझाएणं तदिवस एगगिर्हसि पिण्डवायं दवावित्तए, तेण परं णो से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा कप्पइ से अण्णयरं वेयावडियं करेत्तए, तंजहा - उट्ठावणं वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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