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३९ मद्ययुक्त स्थान में प्रवास करने का विधि-निषेध, प्रायश्चित्त *************************************************************
भाष्यकार ने उपर्युक्त सुरक्षित धान्य युक्त स्थान के संदर्भ में एक और विशेष तथ्य का उल्लेख किया है - गीतार्थ - गंभीर तत्त्ववेत्ता साधुओं का ही ऐसे स्थानों पर रहना विहित है। अन्य अगीतार्थ साधु वैसे गीतार्थ श्रमणों के निर्देशन में रह सकते है।
क्योंकि वृष्टि के आधिक्य एवं लम्बे तपश्चरण के पारणे आदि की असुविधा में अगीतार्थ साधुओं द्वारा ऐसे स्थानों पर संयम की विराधना संभव है।
मधयुक्त स्थान में प्रवास करने का विधि-निषेध, प्रायश्चित्त ___ उवस्सयस्स अंतो वगड़ाए सुरावियडकुम्भे वा सोवीरयवियडकुम्भे वा उवणिक्खित्ते सिया, णो कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए, हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे णो लभेजा, एवं से कप्पइ एंगरायं वा दुरायं वा वत्थए, णो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा॥४॥
कठिन शब्दार्थ - सुरावियडकुम्भे - पिसे हुए शालि आदि उत्तम धान्य से निर्मित सुरा से परिपूर्ण कुंभ, सोवीर - गुड़ आदि से निर्मित सुरा, हुरत्था - बाहर, संतरा छेए - दीक्षा-छेद, परिहार - तप विशेष का प्रायश्चित्त। ..
भावार्थ - ४. जहाँ उपाश्रय के भीतर (प्रांगण में) सुरा और सौवीर. से युक्त घड़े रखे हों वहाँ साधु-साध्वियों को क्षण मात्र भी रहना नहीं कल्पता। ___उपाश्रय के बाहर खोज करने पर भी यदि कोई स्थान प्राप्त न हो तो एक रात या दो रात वहाँ रहना कल्पता है। एक रात या दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता। ___यदि वे वहाँ एक रात या दो रात से अधिक ठहरते हैं तो उन्हें दीक्षा छेद या तपरूप प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - आयुर्वेद शास्त्र में मदिरा के अनेक भेद वर्णित हैं। भाव प्रकाश में वर्णित भेदों में सुरा० का भी उल्लेख है। तदनुसार शालि और षाष्टिक धान्य की पिष्टि से वह निर्मित होती है। ● शालिषष्टिकपिष्टादिकृतं मद्यं सुरा स्मृता। .
(भावप्रकाश पूर्व खण्ड, प्रथम भाग, संधानवर्ग - २३)
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