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________________ बृहत्कल्प सूत्र - द्वितीय उद्देशक ३८ मालाउत्ताणि - ऊपरी मंजिल पर रखे हुए, ओलित्ताणि - गोमय मृत्तिका आदि का लेप किए हुए, विलित्ताणि - छोटे-छोटे खण्डों से युक्त कर फिर लिपे हुए। भावार्थ - १. उपाश्रय के भीतर प्रांगण में उत्तम कोटि के चावल (शालि धान्य), व्रीहि (चावल की जाति विशेष), मूंग, उड़द (उर्द), तिल, कुलत्थ, गेहूँ, जौ, ज्वार अव्यवस्थित रखे हों, विशेष रूप से बिखरे हों, बिखरे हुए हों या इधर-उधर सर्वत्र बिखरे हुए हों तो साधुओं और साध्वियों को क्षण भर भी वहाँ प्रवास करना नहीं कल्पता। ____२. यदि वह जाने कि (शालि यावत् ज्वार आदि) उत्क्षिप्त, विक्षिप्त, व्यतिकीर्ण एवं व्याकीर्ण नहीं हैं किन्तु वे राशिकृत, पुंजीकृत, भित्तिकृत, कुड्यकृत, लांछित, मुद्रित या पिहित हैं तो साधु-साध्वियों को हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में वहाँ रहना कल्पता है। ३. यदि वह जाने कि (उपाश्रय के भीतर शालिधान्य यावत् ज्वार) राशिकृत, पुंजीकृत, भित्तिकृत, कुड्यकृत नहीं हैं किन्तु कोठे में या पल्य में भरे हुए हैं, मिट्टी या गोमय से लिप्त, उपलिप्त हैं, पिहित (ढके हुए), लांछित या मुद्रित हैं तो वहाँ साधु-साध्वियों को वर्षावास में रहना कल्पता है। विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त "यथालन्द" शब्द क्षण भर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बृहत्कल्पभाष्य में इसके विश्लेषण में निम्नांकित गाथा का उल्लेख हुआ है - तिविहं च अहालंद, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होइ उक्कोसं॥ - बृह. भाष्य ३३०३ यथालन्द शब्द काल का द्योतक है, जो तीन प्रकार का कहा गया है। उसका जघन्य रूप आर्द्र (गीले) हाथ की रेखा के सूखने जितना माना गया है। इसका पाँच दिन-रात का कालमान उत्कृष्ट तथा इन दोनों के मध्यवर्ती मध्यम यथालन्दकाल कहा जाता है। बृहत्कल्पसूत्र के तृतीय उद्देशक में तथा उववाइय सूत्र में उत्कृष्ट कालमान २९ दिन का भी माना गया है। अव्यवस्थित एवं विकीर्ण आदि धान्य कणों से युक्त प्रांगण वाले उपाश्रय में आवास के निषेध का अभिप्राय यह है कि वहाँ एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा की अत्यधिक आशंका बनी रहती है। इसी कारण वहाँ जरा भी प्रवास न करने का निषेध किया गया है। विविध रूप में लिप्त, उपलिप्त, लांछित, मुद्रित, पिहित, कोष्ठागार, पल्य, मंच आदि में सुरक्षित धान्ययुक्त स्थान में वर्षाकाल में चातुर्मास करना विहित किया गया है क्योंकि धान्य कणों के बाहर निकलने या बिखरने की आशंका नहीं रहती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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