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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक **********************************************************
विवेचन - इस सूत्र में वैराज्य और विरुद्धराज्य - इन दो शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है, जहाँ साधु-साध्वियों को सद्यः - बार-बार आना-जाना नहीं चाहिए। . . .
“विगत:-पदच्युतिकृतः, मृतो वा राजा यस्मिन् राज्ये तद्विराज, तस्य भावः वैराज्यम्" - इस व्युत्पत्ति के अनुसार जहाँ का राजा पदच्युत कर दिया गया हो अथवा मर गया हो, उसे विराज कहा गया है। विराज का भाववाचक वैराज्य है, जो अराजकतापूर्ण स्थिति का द्योतक है।
वैराज्य शब्द की व्युत्पत्ति नियुक्तिकार ने और प्रकार से भी की है, जैसे - १. जिस राज्य में लोगों में, विभिन्न दलों में पूर्व परम्परागत वैमनस्य हो। २. जिन दो पड़ोसी राज्यों में शत्रुता उत्पन्न हो गई हो।
विरुद्धराज्य का तात्पर्य उन राज्यों से हैं, जिनमें पड़ोसी राज्यों में आपस में गमनागमन निषिद्ध हो।
सार यह है कि जहाँ की राज्य व्यवस्था अराजकतायुक्त हो, रक्षा आदि की सुव्यवस्था न हो अर्थात् धर्ममर्यादाओं के परिपालन में अथवा चारित्र रक्षा में खतरा हो, वहाँ साधुसाध्वियों के लिए गमनागमन निरापद नहीं होता। . नियुक्तिकार ने और भी स्पष्ट किया है कि जाना आवश्यक हो तो कारण बतलाते हुए आरक्षीजनों या राज्याधिकारियों से पूछ कर उनकी अनुमतिपूर्वक जाना कल्प्य है। वैसा होने में राज्याधिकारियों पर सुरक्षा का उत्तरदायित्व रहता है। - ऐसे राज्यों में साधु के गमनागमन के क्या-क्या कारण हो सकते हैं, उनमें रुग्ण साधुओं के वैयावृत्य, माता-पिता आदि संबद्ध जनों के दीक्षा प्रसंग, भक्तप्रत्याख्यान आदि हेतु, प्रतिवादियों के आह्वान पर शास्त्रार्थ एवं तत्त्वचर्चा आदि का नियुक्तिकार ने उल्लेख किया है, जो पठनीय है। वैराज्य और विरुद्धराज्य में जाने-आने का प्रसंग अपवाद मार्ग के अन्तर्गत स्वीकृत है।
भिक्षार्थ अनुप्रविष्ट साधु द्वारा वस्त्रादि लेने का विधिक्रम णिग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविट्ठ केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवणिमंतेजा, कप्पइ से सागारकडं गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि उग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए॥३८॥
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