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________________ बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक ६ पुष्प, फल और बीज भी उपलक्षित हैं । प्रलम्ब या फल के संबंध में ग्राह्यता-अग्राह्यता विषयक सिद्धान्त इन सब पर लागू होता है। - 'आम' का अर्थ कच्चा होता है। जो अग्नि आदि से पक्व नहीं है उसे यहाँ पर आम कहा है। कच्चे होने पर भी भिन्न होने से अचित्त हो जाते हैं। चटनी आदि आम 'ताल प्रलम्ब' है किन्तु पीस जाने (भिन्न हो जाने) के कारण इस सूत्र से वे ही ग्रहण किये जाते हैं। नाम स्थापना आदि भेद से 'आम' के चार भेद एवं अनेक प्रभेद किये गये हैं। उनमें से इस सूत्र में कच्ची वनस्पति हो अर्थात् अग्नि पक्व नहीं हो उसको किस अवस्था में ली जा सकती है, उसकी विधि बताई गई है। कच्ची वनस्पति प्रायः असंख्य-जीवी या अनंत-जीवी होती है उसका भेदन हो जाने पर अर्थात् पीसकर चटनी आदि रूप में बन जाने पर कच्ची होते हुए भी जीव रहित हो जाने से साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं किंतु 'भिण्णे' में कटे हुये वृक्ष के पत्तों के टुकड़ों आदि अर्थ नहीं समझना चाहिए। क्योंकि यदि कच्ची वनस्पति के ऐसे बड़े-बड़े टुकड़े भी ग्रहण करने कल्पते होते तो साध्वियों के लिए पक्व वनस्पति की तरह इस में भी विधि भिन्न, अविधि भिन्न आदि बताते। किंतु यहां पर नहीं बताने का आशय यह है कि आम वनस्पति विधि-भिन्न हो जाने (छोटे छोटे टुकड़े हो जाने पर, पीस जाने) पर ही ग्रहण करना कल्पता है। बड़े-बड़े टुकड़े होने पर भिन्न होते हुए भी सचित्त होने से साधु-साध्वियों को ग्रहण करना नहीं कल्पता है। अतः हरे पत्ते भिन्न हो जाने पर, पीस जाने . पर चटनी आदि रूप बन जाने पर कच्चे (अग्नि पक्व नहीं) होते हुए भी इस सूत्र के आधार से साधु-साध्वियों को ग्रहण करने कल्पते हैं। हरे पत्ते के बड़े-बड़े टुकड़े सचित्त होने से ग्रहण करना नहीं कल्पता है। यह आशय भी विधि भिन्न, अविधि भिन्न पद नहीं देने से इसी सूत्र से निकलता है। ... यहाँ प्रयुक्त 'आम' शब्द अपरिपक्व या कच्चे शब्द का वाचक है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पक कर स्वयं गिरा हुआ फल ग्राह्य हो क्योंकि वह द्रव्यपक्व माना जाता है। बीज आदि की दृष्टि से सचित्त होने के कारण उसे भावपक्व नहीं कहा जाता। इसलिए वह ग्राह्य नहीं होता। . . मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य। पुप्फे फले य बीए, पलंब सुत्तम्मि दस भेया॥ - बृहत्कल्प उद्देशक १, भाष्य गाथा ८५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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