SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु साध्वियों के लिए फल ग्रहण विष क विधि-निषेध . ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ प्रामाणिक ठहराया है। क्योंकि पुराने भाष्य चूर्णि में तो इसका अर्थ केला नहीं किया है। फिर बाद के किसी केले के पक्षधरों ने इसको केला अर्थ प्रदान कर दिया है और कुछ वर्षों से परंपरा चल पड़ी। परन्तु भारत भर के किसी भी जैन जैनेत्तर कोष और ग्रन्थ में 'तालप्रलंब' का अर्थ केला नहीं किया है।" - दूसरा प्रमाण स्वयं केले के पक्षधर आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.. द्वारा सम्पादित बृहत्कल्प सूत्र टीका सहित, जो सतारा (महाराष्ट्र) से प्रकाशित हुआ है। इसके पृष्ठ नं० २ में जो टीका दी है वह इस प्रकार है - आर्म - अपक्वं - तालो - वृक्ष विशेषः तत्र भवं ताल - तालफल, प्रकर्षेण लम्बते इति प्रलम्बम्....। प्रलम्बं द्विधा - मूल प्रलम्बं ताल प्रलम्ब वा, मूल प्रलम्बं - डिड्डियादि, ताल प्रलम्ब - सल्लकी प्रभृतयः॥9॥ में भी 'तालप्रलंब' का अर्थ केला नहीं करके डिड्डियादि और शल्लकी आदि वनस्पति विशेष किया है तथा इसी पुस्तक के पृष्ठ ८५ में जो शब्दार्थ दिये हैं। वहाँ भी (तालपलबे - ताल वृक्ष का फल) 'तालप्रलंबः का अर्थ ताल वृक्ष का फल लिंखा है। दोनों स्थान के अर्थ में विषमता होते हुए भी केला तो अग्राह्य ही रहा है। तीसरा प्रमाण शतावधानी पं. र. मुनि श्री रत्नचन्द्र जी म. सा. ने अपने अर्धमागधी कोष भाग ३ पृष्ठ ४२ में 'तालप्रलंब' का अर्थ 'ताड र्नु फल' किया है। यहाँ भी केला अर्थ गाह्य नहीं है। __अभिधान राजेन्द्र कोष में भी इन पांचों सूत्रों का विस्तार से पाँचवें भाग में अर्थ है वहाँ भी वनस्पति के दसों भेदों को ग्रहण किया है, इस प्रकार बृहत्कल्प सूत्र के आधार से केले को ग्राह्य बताना अपने आप में धोखा है। ___इस प्रकार बृहत्कल्प सूत्र की प्राचीन नियुक्ति, भाष्य और टीका में भी तालप्रलम्ब शब्द का अर्थ 'केला (कदलीफल) नहीं किया है। आगम में भी केले के लिए 'कयली' (कदली) शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु 'तालप्रलंब' शब्द का नहीं। तथा किसी भी आगम, व्याकरण, शब्दकोष और आयुर्वेदिक ग्रंथों में भी तालप्रलब का अर्थ 'केला (कदलीफल)' देखने में नहीं आया है। अतः भगवती सूत्र के शतक २२ से केला सचित्त है। यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है। भाष्य के अनुसार प्रलम्ब या फल से यहाँ मूल, कन्द, स्कंध, त्वक्, शाल, प्रवाल, पत्र, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy