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________________ [17] दसवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में चन्द्रप्रतिमाओं का आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत इन पांच व्यवहारो का जिस समय जो उपलब्ध हो उनका क्रमशः निष्पक्ष पालन करने, सेवा कार्य एवं गण कार्यों में साधु को किस प्रकार संलग्न रहना चाहिये, स्थविर भगवन्तों के प्रकार, दीक्षा के लिए आयु का कालमान अवयस्क ( १६ वर्ष से कम उम्र वाले को आचारांग और निशीथ की वाचना न देना, आचार्यादि दस की भाव पूर्वक वैयावृत्य करना इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। इस आगम का अनुवाद जैन दर्शन के जाने-माने विद्वान् डॉ० छगनलालजी शास्त्री काव्यतीर्थ एम. ए., पी.एच.डी. विद्यामहोदधि ने किया है। आपने अपने जीवन काल में अनेक आगमों का अनुवाद किया है। अतएव इस क्षेत्र में आपका गहन अनुभव है । प्रस्तुत आगम के अनुवाद में भी संघ द्वारा प्रकाशित अन्य आगमों की शैली का ही अनुसरण आदरणीय शास्त्रीजी ने किया है यानी मूल पाठ, कठिनं शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन आदि । आदरणीय शास्त्रीजी के अनुवाद की शैली सरलता के साथ पांडित्य एवं विद्वता लिए हुए है। जो पाठकों के इसके पठन अनुशीलन से अनुभव होगी। आदरणीय शास्त्रीजी के अनुवाद में उनके शिष्य डॉ० श्री महेन्द्रकुमारजी का भी सहयोग प्रशंसनीय रहा। आप भी संस्कृत एवं प्राकृत के अच्छेजानकार हैं। आपके सहयोग से ही शास्त्रीजी इस विशालकाय शास्त्र का अल्प समय में ही अनुवाद कर पाये । अतः संघ दोनों आगम मनीषियों का आभारी है । . इस अनुवादित आगम को परम श्रद्धेय श्रुतधर पण्डित रत्न श्री प्रकाशचन्दजी म. सा. की आज्ञा से पण्डित रत्न श्री लक्ष्मीमुनिजी म. सा. ने गत कोण्डागांव चातुर्मास में सुनने की कृपा की। सेवाभावी सुश्रावक श्री दिलीपजी चोरड़िया, कोण्डागांव निवासी ने इसे सुनाया। पूज्य श्री जी ने आगम धारणा सम्बन्धित जहाँ भी उचित लगा संशोधन का संकेत किया । तदनुसार यथास्थान पर संशोधन किया गया। तत्पश्चात् मैंने एवं श्रीमान् पारसमलजी चण्डालिया ने पुनः सम्पादन की दृष्टि से इसका पूरी तरह अवलोकन किया। इस प्रकार प्रस्तुत आगम को प्रकाशन में देने से पूर्व सूक्ष्मता से पारायण किया गया है। बावजूद इसके हमारी अल्पज्ञता की वजह से कहीं पर भी त्रुटि रह सकती है। अतएव समाज के विद्वान् मनीषियों की सेवा में हमारा नम्र निवेदन है कि इस आगम के मूल पाठ, अर्थ, अनुवाद आदि में कहीं पर भी कोई अशुद्धि, गलती. आदि दृष्टिगोचर हो तो हमें सूचित करने की कृपा करावें । हम उनके आभारी होंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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