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________________ निदानरहित की मुक्ति १४५ AAAAAAAAmrit ★★★★★★★★katakakakakakakakkar*********AAAAAAA★★ कठिन शब्दार्थ - विरत्ते - विरक्त होता है, सव्वसंगातीते - धन्य-धान्य आदि सभी परिग्रहों से अतीत, सव्वहा - सब प्रकार से, सव्वसिणेहाइक्कंते - सभी प्रकार के स्नेह बंधनों से दूर, सव्वचरित्तपरिवुडे - सर्वचारित्र परिवृद्ध - संपूर्ण चारित्र - यथाख्यात चारित्रयुक्त, अणुत्तरे - सर्वोत्कृष्ट, णिव्वाघाए - निर्व्याघात - प्रतिरोध रहित, कसिणे - कृत्स्न - संपूर्ण, पडिपुण्णे - प्रतिपूर्ण - सर्वांग सम्पन्न, सव्वण्णू - सर्वज्ञ, सदेवमणुयासुराए- देव, मनुष्य और असुर सहित, आउसेसं - अवशिष्ट आयु, आभोएइ - केवलज्ञान से जानकर, चरमेहिं - अन्तिम, ऊसासणीसासेहिं - उच्छ्वास-निःश्वास, अणियाणस्स - निदान रहित साधनामय जीवन का, आयइठाणं - आयति स्थान - उत्तर काल (अगले भव) में जिस निदान का फल हो, ऐसा स्थान या निदानकर्म रूप अध्ययन। भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! मैंने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, वही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् इस धर्म का पराक्रमपूर्वक आराधन करने वाला संयमी सभी प्रकार की विषयवासनाओं से रहित हो जाता है, समस्त राग विरहित हो जाता है, सभी आसंग - आसक्तियों से छूट जाता है, सभी प्रकार के स्नेह-बंधनों को अतिक्रांत कर जाता है, सर्व परिग्रहों का त्याग कर देता है तथा संपूर्ण चारित्र - यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करता है। .. अनुत्तर - उत्तम ज्ञान, उत्तम दर्शन एवं सर्वोत्कृष्ट निर्वाण मार्ग से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उस अनगार भगवंत को अनंत, अनुत्तर (श्रेष्ठतम), निर्व्याघात - प्रतिरोध रहित, निरावरण, संपूर्ण एवं प्रतिपूर्ण - सर्वांशतः पूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है। तदनंतर वे अनगार भगवंत जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाते हैं। वे देव, मनुष्यों और असुरों की परिषद् में धर्मदेशना देते हैं यावत् अनेक वर्षों तक केवलिपर्याय का पालन कर (केवलज्ञान से) अपनी अवशिष्ट आयु को जानकर भक्तप्रत्याख्यान करते हैं - चौविहार संथारा करते हैं। अनशन द्वारा अनेक भक्तों का छेदन करते हुए अंतिम श्वासोच्छ्वास के साथ सिद्धत्व प्राप्त करते हैं यावत् सब दु:खों का अन्त करते हैं। .. आयुष्मान् श्रमणो! उस निदान रहित क्रिया (साधनामय जीवन) का यह कल्याणरूप फल होता है कि वह उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त कर मुक्ति प्राप्त करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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