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________________ श्रमण होने का निदान याचक कुल, सुणीहडे - सुनिर्हतः सुखपूर्वक निकल सकेगी, आया सिद्ध हो सकता है। - + १४३ *** भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! मैंने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है यावत् संयम साधना में पराक्रमपूर्वक गतिशील निर्ग्रन्थ दिव्य एवं मानुषिक काम-भोगों से विरक्त हो यह चिन्तन करते हैं - मनुष्य जीवन संबंधी काम-भोग अध्रुव, अनियत, अशाश्वत यावत् त्याज्य हैं तथा देव विषयक (दिव्य) कामभोग भी अध्रुव यावत् गमनागमन देने वाले - त्याज्य हैं। यदि मेरे द्वारा सम्यक् रूप में आचरित तप, नियम का विशिष्ट फल हो तो मैं आगामी भव में अंतकुल, प्रांतकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, कृपणंकुल या याचककुल- इनमें से किसी एक कुल में पुरुष रूप में जन्म ग्रहण करूँ, जिससे मेरी यह आत्मा सुखपूर्वक (इन कुलों से दीक्षा हेतु) निकल सके। यही मेरे लिए श्रेष्ठ होगा । आयुष्मान् श्रमणो ! निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी इस प्रकार का निदान कर, उसका आलोचन, प्रतिक्रमण किए बिना कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं इत्यादि देवलोक एवं मनुष्यलोक संबंधी समस्त वर्णन यहाँ पूर्व सूत्रों में आए वर्णन की तरह योजनीय है । क्या वह (पूर्व वर्णित कुलोत्पन्न पुरुष ) मुंडित होकर गृहस्थ से श्रमण धर्म में प्रव्रजित होता है ? Jain Education International आत्मा, सिज्झेज्जा हाँ, प्रव्रजित होता है । क्या वह उसी भव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर यावत् सभी दुःखों का अन्त कर सकता है ? नहीं, यह सम्भव नहीं है । - For Personal & Private Use Only वह अनगार भगवंत ईर्या-समिति, भाषा समिति यावत् ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करता है । रोग उत्पन्न होने अथवा न होने पर भी यावत् अनेक भक्तों का छेदन करता है ? हाँ, प्रत्याख्यान करता है । अनेक भक्तों का अनशन पूर्वक छेद करता है ? हाँ, छेदन करता है । (तत्पश्चात्) आलोचन, प्रतिक्रमणपूर्वक समाधिप्राप्त ( वह श्रमण भगवंत) काल समय आने पर कालधर्म को प्राप्त होकर अन्य किसी देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न होता है । आयुष्मान् श्रमणो ! उसके इस प्रकार के निदान का यह पापरूप फल होता है कि वह www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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