SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणोपासक होने का निदान : १३९ kakakakakakakakakakakakakakakkarutakkakkakkakakakakakakirtant देवियों के साथ (भी) भोग सेवन नहीं करते परन्तु अपनी देवियों के साथ विषय सेवन (परिचारणा) में रत रहते हैं। वे वहाँ से आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय कर इत्यादि विषयक वर्णन यहाँ पूर्वानुसार योजनीय है - वह केवलिप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखते हैं। . क्या वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास को ग्रहण कर सकता है (करता है)? नहीं, ऐसा संभव नहीं है। वह मात्र दर्शन श्रावक होता है। वह जीव-अजीव के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता होता है यावत् उसके अस्थि और मज्जा में सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म के प्रति प्रेम होता है - उसके हाड-हाड एवं रग-रग में सर्वज्ञ प्रवचन के प्रति प्रीति होती है। . आयुष्मान् श्रमणो! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थयुक्त - सारभूत है, परमार्थ - भव बंध हरण करने वाला है। शेष अनर्थ या निरर्थक हैं। . वह इस प्रकार चिन्तन करता हुआ अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक के रूप में - अगार धर्म का पालन करता हुआ, काल आने पर कालधर्म को प्राप्त कर अन्य किसी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार आयुष्मान् श्रमणो! उस निदान का यह पाप रूप फल होता है कि वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास नहीं कर सकता। . ___... श्रमणोपासक होने का निदान . — एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते तं चेव सव्वं जाव से य परक्कममाणे दिव्वमाणुस्सएहिं कामभोगेहिं णिव्वेयं गच्छेजा, माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा, दिव्वावि. खलु कामभोगा अधुवा अणितिया असासया चलाचल(ण)धम्मा पुणरागमणिज्जा पच्छा पुव्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा, जइ इमस्स तवणियम जाव आगमेस्साणं जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया जाव पुमत्ताए पच्चायति तत्थ णं समणोवासए भविस्सामि - अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे फासुयएसणिज्जं असणपाणखाइमसाइमं पडिलाभेमाणे विहरिस्सामि, से तं साहु। एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy